Premarshi

धीरेन्द्र प्रेमर्षिक चिन्तन चौपाड़ि

  • देसिल वयना सबजन मिट्ठा : मैथिल कविकोकिल विद्यापति

विद्यापतिक साहित्यमे सामाजिक सन्देश @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on जनवरी 8, 2012
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संसारमे एहन बहुत कम कवि होएताह जे जीवनमे एक्कहुटा महाकाव्य लिखनहि विन महाकवि कहबैत होथि। एहन व्यक्तित्व मैथिल कवि कोकिल विद्यापतिए भेलाह। तत्कालीन समयमे विद्वता आ प्रज्ञा प्रकटीकरणक लेल भारतवर्षक एक मात्र माध्यम संस्कृत भाषामे पूर्ण अधिकार रखितहुँ जन–मन–रञ्जनक लेल ‘देसिल वयना सभजन मिट्ठा’ कहि लोकभाषामे रचना परम्पराक शुरुआत कऽ विद्यापति समस्त उत्तर भारतीय आर्यभाषाक प्रथम जनकविक रूपमे उदित भेलाह। जनभाषामे काव्य सृजन परम्पराक पहिल सशक्त डेग उठौनिहार व्यक्ति विद्यापतिए छलाह। हिनके पदचिह्नपर चलैत अवधी भाषामे तुलसीदास ‘रामचरितमानस’सन अमर काव्यक रचना करबामे सफल भेलाह। तहिना ब्रजभाषामे मीरा तथा सूरदास, भोजपुरीमे कबीरदाससन उद्भट कविसभक उदय भेल। तेँ प्रसिद्ध हिन्दी कवि डा. हरिवंश राय बच्चन महाकवि विद्यापतिक मादे लिखलनि अछि—

थे न कबीर, न सूर न तुलसी
और न थी जब बाबरि मीरा
तब तुमने ही मुखरित की थी
मानव के मानस की पीड़ा

अपन काव्यपुस्तक ‘आरती और अंगारे’ मे विद्यापतिकेँ एहि तरहेँ सम्बोधित कएनिहार डा. बच्चन ‘टूटी–छूटी कड़ियाँ’ में विद्यापतिक महिमाकेँ विशिष्टीकृत करैत एहुना कहलनि अछि— ‘भाषाक क्षमताकेँ भलहि सरहपाद मानैत होथु, भाषाक ओज दऽ रासो कविसभ भलहि जनैत होथि, मुदा भाषाक असली सुआद सभसँ पहिने विद्यापतिए बुझलनि— देसिल वयना सबजन मिट्ठा। विद्यापति हमरालोकनिक सर्वप्रथम परिस्कृत गीतकार थिकाह। संस्कृतक ध्वनि–माधुर्यकेँ ओ पूर्णतया भाषामे उतारैत छथि। हुनका ‘अभिनव जयदेव’ सेहो कहल जाइत छनि। मार्मिकता आ भावक गहिराइमे ओ जयदेव आ रासो कालक शृङ्गारिक कविसभसँ बहुतो आगाँ छथि। …..
………..। देसिल वयनाद्वारा मानवीय भावकेँ एते सूक्ष्मतापूर्वक पहिल बेर विद्यापतिए छूबि सकलाह।’

साहित्याकाशक देदीप्यमान नक्षत्र महाकवि विद्यापति (ई.सन. १३६०—१४४८) मूलतः शृङ्गारिक एवं धार्मिक प्रवृत्तिक कवि मानल जाइत छथि। मुदा व्यापकतामे देखलापर हुनक रचनाद्वारा समाजमे अनेको सार्थक सन्देशसभक सम्प्रेषण सेहो प्रचुर मात्रामे भेल हमसभ पबैत छी। हुनक चामत्कारिक काव्यप्रतिभेक कारण अवसानक छ सय वर्षक बादहु ओ जन–मन ओ लोक–जीवनमे जीवित एवं परिव्याप्त छथि। सगरमाथापर फहराइत विद्यापतिक ख्याति, सुयश एवं प्रभावकेँ परवर्ती कालक कतेको साहित्यकार समाजमे सकारात्मक सन्देश प्रवाह करबाक लेल उपयोग करैत सेहो देखल गेल छथि। निश्चित रूपेँ एकटा आम व्यक्ति जखन कोनो बात कहैत अछि तँ ओ ओतेक प्रभावोत्पादक नहि होइत छैक जतेक एक प्रतिष्ठित तथा सामाजिक हैसियतप्राप्त व्यक्तिक कहलासँ होइछ। तेँ बादक किछु कवि जे सामाजिक कुरीतिसभकेँ हटएबादिस संवेदनशील छलथि, सेसभ विद्यापतिक नामकेँ भनिताक रूपमे प्रयोग कऽ ओहन सुसन्देशसभक प्रवाह करैतसन पाओल गेलाह अछि। मिथिलामे रहल अनमेल विवाह–प्रथाकेँ निरुत्साहित करबाक गूढार्थ अन्तर्निहित रहल निम्न गीतकेँ एही श्रेणीक एक उत्कृष्ट गीत मानल जा सकैत अछि, जाहिमे तरुणी स्त्रीक अल्प वयसक पुरुषक सङ्ग विवाह भऽ गेलाक बाद उत्पन्न परिस्थितिक वर्णन कएल गेल छैक—

पिया मोर बालक हम तरुणी गे,
कओन तप चुकलहुँ भेलहुँ जननी गे।

तहिना प्रौढ पुरुषक सङ्ग नवयौवना स्त्रीक विवाह करबाएल जा रहल प्रसङ्गमे कन्याक माए अपन पति आ समाजकेँ उपराग दैत चेतावनीक भाषामे कहैत छथि—

हम नहि आजु रहब एहि आँगन
जौँ बूढ़ होएत जमाए

एहन अनमेल विवाहक लेल मिथिलाक लोकव्यवहार मोताबिक भाग्यकेँ दोष देबाक सङहि बेटीक पिता तथा घटककेँ सेहो दोषक भागी बतबैत आगाँ कहल गेल अछि—

एक तँ बैरी भेल बीधि–विधाता
दोसर धियाकेर बाप
तेसर बैरी भेल नारद बाभन
जे बुढ आनल जमाए

यद्यपि उपर्युक्त गीतसभ मैथिल समाजमे विद्यापतिएक गीतक रूपमे समादृत एवं प्रचलित अछि। ओहुना एहन गीतसभक भनितामे ‘भनहि विद्यापति’ लिखल पाओल जाइत छैक। मुदा विभिन्न विद्वानसभक मतानुसार विद्यापतिक गीत कहि सैकड़ो एहनो गीत लोककण्ठमे व्याप्त अछि, जे यथार्थतः विद्यापति नहि लिखने छथि। उपर देल गेल गीतसभक भाषा आ विद्यापतिकालीन मैथिली भाषाक स्वरूपक तुलनात्मक अध्ययन–विश्लेषण कएलासँ सेहो ई बात स्पष्ट होइत अछि। ओना तँ जे गीतसभ विद्यापतिएद्वारा लिखल गेल बातपर कनेको शङ्का नहि छैक, ताहूमे भक्ति आ शृङ्गर रसक गीत मात्र नहि छैक, जीवनकेँ सुमार्गपर लऽ चलबाक लेल अनेको उद्देश्यपूर्ण गीतसभ विद्यापति स्वयं सेहो प्रचुर मात्रामे लिखने छथि।

विद्यापतिक शतप्रतिशत वास्तविक भक्ति आ शृङ्गार रसक गीतसभक सेहो खास उद्देश्य रहैत छलैक। मिथिलाक तत्कालीन अवस्थापर ध्यान देलापर देखल जाइत अछि जे यवनक आक्रमण तथा जल्दी–जल्दी होइत आएल नेतृत्व परिवर्तनक कारण मिथिलाक आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति दिनानुदिन गिरैत गेल छलैक। प्रायः यवन सेना जखन आक्रमण करैत छल तँ ओहिठामक सम्पूर्णप्रायः धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक पूर्वाधारकेँ लतखुर्दनि कऽ जनजीवनकेँ धङरचास कऽ दैत छल। महिलासभकेँ ओसभ अपन पहिल शिकार बनबैत छल। जबर्दस्ती इस्लाम धर्म कबूल करबएबाक काज सेहो ओतबए मात्रामे कएल जाइत छलैक। एहि सभ क्रियाकलापसँ गार्हस्थ्य जीवन छिन्न–भिन्न भऽ जाइत छलैक। लोक अकर्मण्य एवं किंकर्त्तव्यविमूढ होइत गेल छल। एहन अवस्थामे हतास एवं पलायनोन्मुख समाजकेँ पुनः लीकपर अनबाक उद्देश्यसँ तत्कालीन अवस्थामे जीवन गुजाराक मूल कर्मदिस लोककेँ आगाँ बढ़बाक लेल उत्साहित करऽ वला गीतसभ सेहो रचलनि—

बेरि–बेरि अरे सिव, मोञे तोहि बोलञो
किरिस करिअ मन लाए
बिनु सरमे रहिअ, भिखिए पए मङ्गिअ
गुन गउरब दुर जाए
खटङ्ग् काटि हर हर बन्धबिअ
तिरसिल तोड़िअ करु फारे
बसह धुरन्धर लए हर जोतिअ
पाटिअ सुरसरि धारे

अत्यन्त प्रगतिशील एवं उत्साहवर्धक सन्देश देल गेल एहि गीतमे विद्यापति अपन आराध्य महादेवकेँ किसानक रूपमे ठाढ़ कऽ कहैत छथि— “हे शिव, अपन कर्त्तव्यक पालन नीकजकाँ करी। भीख माङब ने लाज वा शरमक बात छियैक, जे लोकक गुण आ गौरव दुनूकेँ हरि लैत छैक। मुदा अपन काज करबामे कथीक सङ्कोच? तेँ अपन खटङ्ग काटिकऽ हर बनाउ। त्रिशूलकेँ पीटिकऽ फार बनाउ। अपन बसहाकेँ हरमे जोतू। आ, फसलिक सिञ्चन लेल तँ अहाँक मस्तकसँ बहऽ वला गङ्गाक धार अछिए।”

तत्कालीन विषम परिस्थितिमे जनमानसकेँ कर्मशीलताक दिशामे उन्मुख कराएब समाज सचेतक व्यक्तिक सर्वाधिक महत्त्वक काज छलैक। एही समयमे हिन्दू धर्मावलम्बीसभक बीच सेहो शैव, वैष्णव आदि सम्प्रदायमे मानसिक विभाजनक अवस्था छल, जाहिसँ समाजमे विशृङ्खलता आओर बढ़ैत गेल रहैक। एहनमे समान धार्मिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमिक लोकक बीच वृहद एकताक आवश्यकतापर जोड़ दैत विद्यापति कहलनि जे शैव वा वैष्णव परस्पर विरोधी नहि, बल्कि एक्कहि सिक्काक दू पाट अछि। एकरा अपन पदमे विद्यापति एहि तरहेँ अभिव्यक्ति दैत देखल गेल छथि—

भल हर भल हरि भल तुअ कला
खन पित वसन खनहि बघछला

एहि तरहेँ विभिन्न तरहक प्रहारसँ विशृङ्खलित जनजीवनकेँ सहज बनएबाक हेतु कर्मशीलताक सन्देश आ भक्तिमार्गक अनुसरण मात्र यथेष्ट नहि छलैक, लोक–जीवनमे आस्थाक रस सञ्चार कराएब सेहो ओतबए आवश्यक छलैक। विद्यापतिद्वारा प्रायः जीवनक आरम्भिक चरणमे लिखल गेल शृङ्गार रसक गीतसभ होइक वा तत्कालीन राजासभक आदेशमे लिखल गेल शृङ्गार रसक गीतसभ कतेक सार्थक, कतेक निरर्थक छलैक, से अलग विश्लेषणक विषय अछि। मुदा कालान्तरमे मिथिला राज्य छिन्न–भिन्न भऽ गेलाक बादो शृङ्गारिक गीतसभक रचनाक्रमकेँ ओ जाहि तरहेँ निरन्तरता देलनि, से पूर्णतः सोद्देश्य छल। ओहि समयक आकुल–व्याकुल परिस्थितिसँ आमजनकेँ मुक्त कऽ जीवनकेँ सरस बनएबादिस उन्मुख करएबाक लेल विद्यापति एकसँ एक शृङ्गारिक गीतसभक रचना कएलनि। मुदा कविक महिमा देखी जे हुनक लिखल कतिपय श्रैङ्गारिको गीत अपनामे एकटा इतिहास समटने अछि। महाकवि विद्यापतिक एखनधरि भेटल आ सार्वजनिक भेल करिब १,२०० गीतमेसँ २०० क करिब गीत बादक कविसभद्वारा लिखल आ मात्र भनितामे विद्यापतिक नाम लिखल गेल विश्लेषकसभक कथन छनि। मुदा एहन व्यक्तित्व कम्मे होएत, जकर अधिकांश गीत वा पदसभ कोनो ने कोनो इतिहासकेँ समटने होइक। इतिहासक एकटा घटनाक्रमकेँ बड़ सजीवताक सङ्ग प्रस्तुत कएल गेल विद्यापतिक ई गीत—

सजनि निहुर फुकू आगि।
तोहर कमल भ्रमर मोर देखल, मदन उठल जागि।।

जौँ तोहें भामिनी भवन जएबह, एबह कोनह बेला।
जौँ एहि सङ्कटसौँ जिव बाँचत होएत लोचन मेला।।

भन विद्यापति चाहथि जे विधि करथि से–से लीला।
राजा शिवसिंह बन्धन मोचन तखन सुकवि जीला।।

कहल जाइत अछि जे उपर्युक्त शृङ्गार गीत विद्यापति अत्यन्त सङ्कटग्रस्त समयमे लिखने छलाह। यवन सेना हुनक प्रिय राजा शिवसिंहकेँ जखन बन्दी बना दिल्ली लऽ गेल तँ विद्यापति अपन कूटनीतिक कौशलक उपयोग कऽ शिवसिंहक बन्धनमोचन करबौने छलाह। एहि क्रममे बादशाहकेँ जखन ई बुझबामे अएलनि जे विद्यापति कवि छथि तँ हुनका अपन कवित्वक परिचय देबाक लेल कहलनि। ओ चूल्हि पजारैत एक सुन्दरीक कवितात्मक वर्णन करैत अपन कवित्वक उत्कृष्ट परिचय देलनि। किंवदन्ती तँ एहनो छैक जे विद्यापतिक आँखिमे पट्टी बान्हि देल गेलनि आ हुनका कहल गेलनि जे चूल्हि पजारैत सुन्दरीक वर्णन करू। केओ–केओ एहि प्रसङ्गमे विद्यापतिकेँ सन्दूकक भीतर बन्द कऽ सूखल इनारक भीतर राखिकऽ एहि स्थितिक वर्णन करबाक लेल कहल गेल बात सेहो कहैत छथि। अवस्था चाहे जे–जेहन रहल होइक, मुदा एतबाधरि निश्चित जे विद्यापतिद्वारा कएल गेल चित्रण अत्यन्त सजीव आ लोमहर्षक छैक।

गीतमे ओ कहैत छथि— “सुन्दरी, अहाँ जे निहुरिकऽ चूल्हि फुकैत छी, ताहिसँ अहाँक स्तनरूपी कमल हमर आँखिरूपी भमराक आगाँ देखार भऽ रहल अछि, जाहिसँ कामदेव जागि गेल छथि। आब कहू जे अहाँ भवनमे कखन घूरब ? जँ एखनुक सङ्टसँ बाँचि गेलहुँ तँ अपना दुनूगोटेक नजरिक परस्पर मिलान होएबे करत। विद्यापति कहैत छथि— विधाता सेहो नहि जानि केहन–केहन लीला करैत छथि। राजा शिवसिंह जँ बन्धनमुक्त होएताह, तखने बुझू जे मृततुल्य अवस्थामे पहुँचल एहि कविक प्राण घूरत।”

विद्यापतिक एहन अनेको श्रैङ्गारिक गीत छनि, जाहिमेसँ कतेको अपनामे एकहकटा इतिहासक दस्तावेज अछि तँ कतिपय कविता जीवनकेँ रसमय आ रोमाञ्चक बनएबामे सहायक अछि। विद्यापतिक बहुतो शृङ्गारिक गीतकेँ कामकलाक पाठ सिखौनिहार विज्ञानसम्मत कलात्मक अभिव्यक्तिक रूपमे सेहो लेल जाइत अछि, जे आजुक समयमे सेहो सजीव आ सार्थक अछि। तेँ ई कहब अनर्गल हएत जे विद्यापतिक रचनाक उद्देश्य केवल रास–रङ्ग वा राजा–महाराजाकेँ मनोरञ्जन प्रदान करब छलनि। विद्यापति जन–मनक, लोकजीवनक महाकवि छलाह आ ओ प्रेम एवं आनन्दक मार्गपर चलैत कर्मशील जीवनक पक्षमे अपन लेखनीकेँ निरन्तर प्रवाहमय बनौने रहलाह।

गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on डिसेम्बर 30, 2011
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चण्ठ-अदा लत करै, सएह जनु अदालत छै
लण्ठ मोहब्बत करै, सएह जनु अदालत छै

गीताकेर गञ्जनलए सप्पतटा खुआ-खुआ
झूठकेँ जे सत करै, सएह जनु अदालत छै

सत्ताक धौरबी ई बुझि सतौत जनताक—
जिनगी आफत करै, सएह जनु अदालत छै

भलहि आँखि फोडि दै, मुदा नोर पोछबाक
नाटक अलबत करै, सएह जनु अदालत छै

जकरा पड़ाए चाही एकर डरे तकरे लग
शिर सदा नत करै, सएह जनु अदालत छै

हम तँ बस जनै छी जे अन्हारक अपहर्ता—
भोरक स्वागत करै, सएह जनु अदालत छै

२०६८/०९/१३

बहुआयामी युवा धीरेन्द्र प्रेमर्षिसँ मुन्नाजीक गपशपक प्रमुख अंश

Posted by Dhirendra Premarshi on नोभेम्बर 15, 2011
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मुन्नाजी : धीरेन्द्रजी नमस्कार। स्वागत अछि विदेहक आङनमे। मैथिली साहित्यमे प्रवेश कोना केलहुँ? कोनो विशेष कारण वा किछु आओर?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : सर्वप्रथम धन्यवाद अछि मुन्नाजी जे हमरा विदेहक आङनमे आमन्त्रित कएलहुँ। ई प्रश्न हमरा नीक लागल जे मैथिली साहित्यमे प्रवेश कोना कएलहुँ? असलमे हमर साहित्यमे प्रवेश लौलसँ भेल छल। सेहो नेपाली भाषाक माध्यमे। ई लगभग वि.सं. २०४४ साल अर्थात् १९८७ ईस्वीक समय छल। लौल ई जे हमरो नाम पत्र-पत्रिकामे छपए। ओना मात्र किछु लिखनाइकेँ जँ साहित्य कहल जाए तँ हमर कलमसँ जिनगीमे सभसँ पहिल कोनो रचना मैथिलीएमे लिखाएल छल, जे एकटा फटीचर टाइप गीत रहए। छोटे वयससँ सरकारी नोकरीमे प्रवेश कऽ चुकल हम जखन बदली भऽकऽ जनकपुर गेलहुँ तँ अपन गीत-सङ्गीतक प्रेमकेँ मूर्त्त रूप देबाक लेल कोनो जगहक खोज करबाक क्रममे मिथिला नाट्यकला परिषद् पहुँचलहुँ। ओहिठाम जखन डा. धीरेन्द्र, महेन्द्र मलङ्गिया, डा. राजेन्द्र विमल, योगेन्द्र साह ‘नेपाली’ सन विभूतिसभसँ भेट भेल तखन जा कऽ असलमे हमरा मैथिली भाषाक अवस्था आ महत्ताक बोध भेल। तकरा बाद हमहूँ अपन लेखनप्रतिक लौलकेँ मैथिली साहित्यक अभियानदिस मोड़ि देलहुँ। वि.सं. २०४६ सालमे मिनापद्वारा आयोजित मैथिली विकास दिवसक कविगोष्ठीक लेल कन्हि-कूथिकऽ एकटा कविता लिखलहुँ। ओहिमे डा. धीरेन्द्रद्वारा लाल रोसनाइवला कलमसँ जे सुधारात्मक परिवर्तन-चिह्नसभ लगाएल गेल छल, सएह हमरा लेल मैथिली वर्णविन्यासक गुरुमन्त्र बनि गेल आ हम मैथिलीमे लिखैत चलि गेलहुँ।

मुन्नाजी : अहाँक सभ तरहक रचनामे तीक्ष्ण नजरिया जगजिआर होइछ। एकर की स्रोत वा एहि लेल रचनात्मक ऊर्जा कतऽ सँ वा कोना प्राप्त होइए?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : एकर जवाबमे हम अपने गजलक एकटा शेर कहऽ चाहब–

मनमे ने कनियोँ चोर अछि
तेँ गजलो हमर अङोर अछि

देश, समाज आ अपनाप्रति इमान्दारी लोकमे सहजहिँ तीक्ष्णता आनि दैत छैक। हम ‘खुर्पी छुआ बोनि हुआ’ मे कहियो विश्वास नहि कएलहुँ। हमर रचनात्मकताक स्रोत अपन समाजे अछि। खास कऽ समाजमे रहल छद्मवेषी परिपाटी हमरा बेसी झकझोड़ैत अछि आ उएह हमरा लिखबितो अछि। एखनो विशुद्ध कर्मशीलतापर विश्वास कएनिहार जे किछु लोक छथि तिनकासभक निष्ठा आ लगनशीलता हमरा सृजनात्मक ऊर्जा दैत अछि।

मुन्नाजी : की मैथिलीक अतिरिक्त आनो भाषामे रचना कएलहुँ अछि? मैथिली आ अन्यान्य (विशेष कऽ नेपाली) भाषा मध्य मैथिलीक अस्तित्व केहेन वा कोन ठाम नजरि अबैए?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : हँ, हम मैथिलीक अतिरिक्त नेपाली भाषामे सेहो यथेष्ट मात्रामे लिखैत छी। नेपालक स्नातक स्तरक अनिवार्य नेपालीक पाठ्यपुस्तकमे हमर गजल सेहो पढ़ाओल जाइत अछि। छिटफुट हम हिन्दीमे सेहो लिखैत छी। खास कऽ नेपाली साहित्यक सङ्ग जखन हम मैथिलीक तुलना करैत छी तँ सोच, संवेदना आ शैलीगत रूपमे हमरा मैथिली कनेको झूस नहि बुझाइत अछि। मुदा सङ्ख्यात्मकता आ व्यापकताक हिसाबेँ मैथिली सीमित अछि। नेपाली साहित्यमे मैथिलीजकाँ व्यापक गोलैसीक वातावरण सेहो नहि छैक, जाहिसँ ओकर विकास-गति तीव्रतर बुझाइत छैक। ओसभ वर्तमानकेँ उपलब्धिपूर्ण बनएबामे अधिक दत्तचित्त बुझाइत अछि मुदा हम सभ इतिहासक झुनझुन्ना बजबैत मस्त रहबामे बेसी आनन्दित होइत छी।

मुन्नाजी : अहाँ रचनाक अलाबे सम्पादनमे सेहो सक्रियता देखा चुकल छी। अहाँक नजरिये सृजनकर्ता आ सम्पादकक मध्य की फरक हेबाक चाही?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : हम पल्लव, मैथिल समाज, कामना सिनेमासिक (नेपाली) आदि पत्रक सम्पादन सेहो कऽ चुकल छी। रचनाकार आ सम्पादक दुनूमे फरक की होएबाक चाही से हम नहि कहि सकैत छी। मुदा समान की होएबाक चाही से हम अवश्य कहब। दुनूमे मातृगुण अनिवार्य रूपेँ होएबाक चाही।मुदा मुखरताक दृष्टिएँ रचनाकार देवकी रहए आ सम्पादक यशोदा तँ सृजनरूपी सन्तान नीकजकाँ फौदएतैक, से निश्चित।

मुन्नाजी : सम्पादनमे भाइ-भैयारीबला नजरिया देखाइत रहल अछि। जखन कि सम्पादककेँ निरपेक्ष आ दृष्टि फरीछ होएबाक चाही, की कहब अहाँ?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : सम्पादनमे भाइ-भैयारीवला नजरियाक बात जे अहाँ उठौलहुँ अछि से सही भऽ सकैत अछि। मुदा एकर सापेक्षता देखब जरूरी अछि। मैथिली पत्रकारिता एहन नहि अछि जे साधन-स्रोतसँ सम्पन्न भऽकऽ चलैत होइक। लोक अनेक तरहक भाँज भिड़ाकऽ मैथिलीमे पत्रकारिता करैत अछि। एहनमे बाहरसँ स्वतन्त्र रूपेँ यथेष्ट सहयोग नहि भेटि पएबाक कारणे सेहो सम्पादककेँ भाइ-भैयारीक सहयोग लेबऽ पड़ैत होएतनि। मुदा सम्पादन जेँ कि समीक्षा, समालोचना आदि कार्यक दायित्व सेहो निमाहैत चलैत अछि, तेँ यथासम्भव एहिसँ एकरा दूर राखब उचित। कचोट तँ तखन होइत अछि जखन समालोचना भाइ-भैयारीवला नजरियासँ कएल जाइत छैक।ि

मुन्नाजी : अहाँ विभिन्न तरहक कार्यक्रम (आकाशवाणी वा दूरदर्शन) माध्यमे प्रस्तुति दैत रहलहुँ अछ, की एहिमे रोजगार छै? अपनाकेँ एहिमे कतऽ पबैत छी?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : नीकजकाँ समर्पित भऽकऽ लगलापर आजुक समयमे सभ क्षेत्रमे रोजगारी छैक। तखन आकाशवाणी वा दूरदर्शन तँ आओर बहुतो लोकक स्वप्न-संसार सेहो छियैक आ आजुक समयक सर्वाधिक सशक्त हथियारो। एहिमे रोजगारी नहि होएबाक बाते नहि अबैत अछि। हम पूर्ण रूपेँ एहिसभ क्षेत्रमे कहियो आश्रित नहि रहलहुँ। हम नेपालक सरकारी आकाशवाणी रेडियो नेपालमे १३ वर्ष धरि मैथिली, हिन्दी आ नेपालीक समाचार वाचनमे संलग्न रहलहुँ। तहिना पछिला एक दशकसँ नेपालक सभसँ पैघ रेडियो नेटवर्क रेडियो कान्तिपुरसँ जुड़ल छी आ हेल्लो मिथिलासहित किछु कार्यक्रमक सञ्चालन करैत आएल छी। तहिना समय-समयपर टेलिभिजनक विभिन्न कार्यक्रम आ सिरियल सेहो करैत आएल छी। हमर रेडियो नेपालसँ जुड़ाव तँ एकटा सरकारी नोकरीक रूपमे छल। मुदा एहिसभ काजमे हमर अभीष्ट मैथिली भाषा-संस्कृतिक सम्मान आ सम्बर्द्धन रहैत अछि। एकरे ध्यानमे राखि १० वर्ष पहिने हमसभ रेडियो कान्तिपुरमे हेल्लो मिथिलाक शुरुआत कएने रही। एहिमे हमर आवद्धता लगभग स्वयंसेवकीय छल। मुदा हम लागल रहलहुँ। तकर परिणाम ई छैक जे हमर रोजगारीमे आंशिक सहायक तँ ओ भेले अछि, आइ नेपालमे कमसँ कम पाँच सय गोटे खालि मैथिलीएमे बाजिकऽ रोजीरोटी कमा रहल छथि। तेँ एहि मादे हम एतबए कहब जे पूर्ण लगनशीलताक सङ्ग जँ हमसभ बालुओ पेरैत रहब तँ एक ने एक दिन ओहिमेसँ तेल बहरएबे करतैक।

मुन्नाजी :अहाँ विभिन्न प्रकारक क्रियाकलाप वा गतिविधिमे लागल रहैत छी। अपनाकेँ समेटि रखबामे किछु बाधक तँ नहि होइत छैक?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : कहियो काल अवस्था एहन अवश्य भऽ जाइत अछि जे पीठकेँ झँपैत छी तँ माथा उघार आ माथा झँपैत छी तँ पीठ उघार। मुदा समयक सीमित चादरिक व्यवस्थापन करैत माथ आ पीठ दुनू झाँपि लेबामे जे आनन्द अबैत छैक से वर्णनातीत होइत अछि। तेँ बेसीदिस छिड़िअएनाइकेँ सेहो हम अपन सफलताक द्योतक मानैत छी। हँ, एहिदिस साकांक्ष जरूर रहैत छी जे बेसीदिस छिड़िआकऽ कहीँ हमर अभियान तँ लचर नहि भऽ रहल अछि! हम ओ सभ काज करैत रहैत छी जाहिसँ बुझाइत अछि जे ई काज कएलासँ हमर मैथिली एको डेग आगाँ ससरत। जहिया हमरा ई बुझबामे आएत जे ई काज कएने हमर मैथिलीकेँ क्षति भऽ रहल छैक तँ ओ काज हम ठामहि रोकि देबैक। हमरा एखनधरि किछु विशुद्ध पूर्वाग्रही वा अपरोजक-अपाटकसभकेँ छोड़ि केओ एहन सङ्केतो नहि देने अछि, तेँ अपनाकेँ चहुँदिस सक्रिय रखने छी।

मुन्नाजी : रूपा भौजी, धीरेन्द्र भैयाक कार्यक्रमसभमे सेहो अर्द्धांगिनी बनि देखार भेलीह अछि। एकरासभक अतिरिक्त अहाँसँ स्वतन्त्र कोन-कोन गतिविधिमे सक्रिय रहैत छथि?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : स्वतन्त्र रूपेँ सभसँ प्रमुख तँ रूपा एक कुशल गृहिणी छथि। कविता-कथा लिखैत छथि। कम लिखैत छथि, मुदा हुनकामे समाज आ संवेदनाकेँ धरबाक जे कला आ सामर्थ्य छनि से विलक्षण। गीत गबैत छथि, सेहो हुनक स्वतन्त्र क्षेत्र छनि। नेपालक वर्तमान राष्ट्रगानक एक गायिका रूपा सेहो छथि। मैथिल महिला समाजक सचिव आ विभिन्न महिला समाजक सल्लाहकार भऽ कऽ ओ अनेक काज कऽ रहल छथि। नारी जागृति सम्बन्धी कतेको काजमे ओ नेतृत्वदायी भूमिका निर्वाह कऽ रहल छथि।

मुन्नाजी : मिथिला (बिहार) आ नेपालमे कोनो मैथिली गतिविधिक रासि अगड़ा जातिक हाथमे रहल अछि। मुदा नवम सदीमे पिछड़ल जातिक धर्रोहिक सक्रिय प्रवेश भेल अछि। एकरा भविष्यमे कोन नजरिये देखैत छियैक?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : अहाँ बिहारक नजरियासँ देखैत ई बात कहने होएब। मुदा नेपालक अवस्था किछु भिन्न अछि। नेपालक मैथिली गतिविधिक जँ बात करब तँ एहिठाम अगड़ी-पछड़ीवला बात हमरा बेतुका बुझाइत अछि। नेपालमे तँ बहुत पहिनहिसँ मैथिली गतिविधिक रासि अहाँक आशय रहल तथाकथित पछड़ी जातिक डा. रामावतार यादव, डा. योगेन्द्रप्रसाद यादव, डा. रामदयाल राकेश, डा. गङ्गाप्रसाद अकेला, रामभरोस कापड़ि ‘भ्रमर’, योगेन्द्र साह ‘नेपाली’, परमेश्वर कापड़ि, रामाशीष ठाकुर, मदन ठाकुर, रामनारायण ठाकुर, महेन्द्र मण्डल ‘वनवारी’ सँ लऽकऽ नवतुरियोमे अमरेन्द्र यादव, अमितेश साह, नित्यानन्द मण्डल, शीतल महतोसदृश लोकक हाथमे छनि। जँ संस्थागत गतिविधिक बात करब तँ मात्र सप्तरी जिलामेटा पचाससँ अधिक मैथिलीसँ सम्बन्धित सङ्घ-संस्था भेटत, जकर पदाधिकारीसभ कथित पछड़ा वर्गक छथि। प्रायः इएह कारण छैक जे नेपालक मैथिली गतिविधि जतबए छैक, जड़ि धएने छैक। प्रायोजित नहि बुझाएत एहिठामक मैथिली गतिविधि। अधिकांश भारतीय मैथिली अभियानीसभजकाँ नहि जे कहब मैथिलीक कार्यकर्ता आ हिन्दीक कनेक अक्षत भेटि जाए तँ ओहीपर तर-उपर होइत रहनिहार वा घरमे हिन्दीक प्रयोगकेँ प्रतिष्ठा बुझनिहार।

रहल बात एहि सदीमे बिहारोदिस ब्राह्मण आ कायस्थेतर जाति जँ मैथिली गतिविधिमे आगाँ आबि रहल छथि तँ ई मिथिला-मैथिलीक लेल सौभाग्यक बात छियैक। कारण यथार्थमे जँ देखबैक तँ कथित अगड़ीसभ तँ मैथिलीकेँ रङ्गटीप मात्र करैत आएल छथि, अपन दैनन्दिनीमे मैथिलीकेँ यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रयोग करैत यथार्थमे एकरा जीवन देनिहार तँ कथित पछड़ेसभ छथि। ओ सभ जँ पूर्ण सचेष्ट भऽकऽ लागि जाथि तखन तँ मैथिलीक लेल ककरो नोर बहबैत रहबाक कोनो प्रयोजने नहि रहि जएतैक।

मुन्नाजी : अहाँद्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमसभ सतही वा व्यावसायिक पूर्ति मात्रकेँ इङ्गित करैए, की कहब अहाँ?

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : अपन गायकी वा सङ्गीत, अभिनय वा कार्यक्रम सभकेँ हम साहित्य वा रचना मानैत छी आ ताही भावसँ ओकरा हम कार्यरूप सेहो दैत छियैक। एहनमे हम अहाँक प्रश्नसँ कने असमञ्जसमे पड़ि गेल छी। दोसर नम्बर प्रश्नमे अहाँ ई कहैत छी जे ‘अहाँक सब तरहक रचनामे तीक्ष्ण नजरिया जगजियार होइत अछि’। फेर किछु आगाँ चलिकऽ अहाँ कहैत छी जे ‘अहाँक कार्यक्रम सतही होइत अछि’। चलू जँ सतहीयो होइत अछि तैयो हम एहि बातसँ प्रसन्न छी जे अहाँसन गम्भीर व्यक्ति एक सतही कार्यक्रम चलबैत मात्र व्यावसायिक पूर्ति करऽ वलाकेँ एहन गूढ़ प्रश्न पुछबाक योग्य व्यक्ति मानलहुँ। हमरा लेल इएह सभसँ पैघ उपलब्धि अछि।

मुन्नाजी : अपन अगिला योजना की अछि? कोनो विशेष क्रियाकलापक योजना हुअए तँ उल्लेख करी।

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : निकट भविष्यक मूलतः तीनटा प्रमुख योजना अछि। पहिल पल्लव पत्रिकाक पुनर्प्रकाशन। दोसर नेपालमे महाकवि विद्यापतिकेँ राष्ट्रिय विभूति घोषणा करएबाक लेल अभियानक सञ्चालन आ तेसर अपन मैथिली गजलसङ्ग्रहक प्रकाशन।

मुन्नाजी : मैथिली क्रिपाकलापसँ जुड़ल युवा/युवतीक लेल की सन्देश देबऽ चाहब।

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : जे युवा मैथिली क्रियाकलापसँ जूड़ि गेल छथि तिनका किछु कहबाक प्रयोजने नहि अछि। किएक तँ वर्तमानमे बाँकी सभदिस अवसरक झमाझम वर्षा भऽ रहल समयमे सेहो जँ केओ स्वेच्छासँ मैथिलीसन सूखाग्रस्त क्षेत्र चुनैत छथि तँ अनेरे नहि किछु सोचिएकऽ, किछु बूझिएकऽ। ओहुना एखनुक युवा बहुत बुझनुक छथि। हँ, किनको-किनकोमे ई देखबामे अबैत अछि जे सोचलसन उपलब्धि चटपट हासिल नहि भेलापर कने निराश भऽ जाइत छथि। बस अहीठाम कने हिम्मत बन्हने रहबाक जरूरति छैक। हमसभ मैथिलीमे जँ लागल छी तँ अपन माटिक प्रबल प्रेमसँ वशीभूत भऽकऽ। एहि प्रेममे सरिपहुँ आन कोनो प्रेमसँ बेसी डूबि जाइ। मुदा प्रेम शब्द सुनबामे जतेक सहज छैक, निमाहऽ मे ओतेक किन्नहु नहि छैक। तेँ ने एकटा हिन्दी गीतमे कहल गेल छैक¬

ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै,
एक आग का दरिया है इसे तैर के जाना है।

बस एतबा बात जँ बूझि गेलहुँ आ एतबा धीरज सेहो धारि लेलहुँ तँ हमसभ तरहत्थीमे सेहो दूभि जनमा सकैत छी।

मुन्नाजी :धन्यवाद धीरेन्द्रजी अपन स्वतन्त्र विचार देबाक लेल।

धीरेन्द्र प्रेमर्षि : एहि अवसरक लेल मुन्नाजी अहाँक सङ्ग-सङ्ग विदेह परिवारक सेहो हम आभारी छी।

पल्लवमे रेणु @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on अगस्ट 14, 2011
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मैथिली साहित्यप्रेमीलोकनिकेँ ज्ञात हेतनि जे डेढ़ दशक पहिने हम ‘पल्लव’ नामसँ एकटा पत्रिका बाहर करैत रही। आइ जखन आदरणीय रमानन्द रेणुक देहान्तक खबरि सुनलहुँ तँ सहजहिँ पल्लवमे हुनकाद्वारा स्नेहपूर्वक पठाओल गेल रचनासभ मोन पड़ैत गेल। ओहि रचनासभमध्य गजल विशेषांकमे छपल हुनक गजल हुनकाप्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करैत भावकसभक समक्ष प्रस्तुत कऽ रहल छी।

आजुक जीत ने जीत हारि आधार बनल अछि
आजुक रीति कुरीति नीति आचार बनल अछि

सम्बन्धक संन्यास अपरिचित परिचित अछिए
बन्धन मुक्तिक गीत आइ साकार बनल अछि

पोसल स्वप्नक तार टूटि छिड़िआएल सगरो
आइ प्रीति दुर्नीति नियम निस्तार बनल अछि

काञ्चनप्रति आकृष्ट कर्म बाधित नेतृत्वक
जनसहयोग निरन्तर टूटल तार बनल अछि

प्रतिस्पर्धा अछि अर्थ-संकलन साँपक चकरी
लोक मनोरथ फोँक आइ अधिकार बनल अछि

सीझल सभ संयोग भोग सभ रोगक लक्षण
दिशाहीन जनसागर उमड़ल ज्वार बनल अछि

कीर्त्तनमे भऽ व्यस्त अपन सभ व्योँत बिसरलहुँ
देश बिकाएल, सेवा आइ सुतार बनल अछि

अपनहिमे हम लड़ी-मरी अनका लेखेँ की
मुखियाके मुह चाउर, यैह व्यापार बनल अछि

पल्लव वर्ष २ अंक ६ पूर्णांक १५ २०५१ चैत सँ

गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on अगस्ट 14, 2011
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जिनगी अछि बड़ घिनाह नाक चुबैत पोटासन
सुड़कि–सुड़कि तैयो छी ढोबि रहल मोटासन!

पापक भुगताने लेल यदि लोक जनमैत अछि
कसने छी तखन किएक साँसकेँ नङोटासन?

अहिंसाक मन्त्र जपैत धर्म लेल वलि–प्रदान
ओझराएल अछि विचार भरदुलहीक झोँटासन

घरहिसँ खाइत छी, पर कनैत अगहनहिसँ
भरलहुमे गुड़कैत छी विन पेनीक लोटासन

धरती सुनरियाक गोर मुह इजोर करैत—
जिनगी अछि चमचमाइत चुनरीक गोटासन

२०६२/०६/२६

मुसलमान स्रष्टाक मैथिल भावना @ शेख शब्बीर अहमद ‘जख्मी’

Posted by Dhirendra Premarshi on अगस्ट 11, 2011
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ढोल पीटिकऽ बाजि रहल छी, आर बजाकऽ तासा
मिथिला देश निवासी छी हम, मैथिली हमर भाषा

पहिरिकऽ उज्जर बर्फक कम्मल
उत्तर ठाढ़ हिमालय छै
दक्षिण दिशामे पतित पावनी
गंगा नदी विराजै छै
मधुर मनोहर मुहकेर बोली, ढेओरल नीपल बासा
मिथिला देश निवासी छी हम, मैथिली हमर भाषा

पहिरन लोकक साँची धोती
पाग दोपट्टा अंगा
गंगासँ हिमगिरिधरि पसरल
केन्द्रस्थल दरभंगा
भादो रिमझिम ताल सुनाबए, देखबए साओन तमासा
मिथिला देश निवासी छी हम, मैथिली हमर भाषा

ककरो जीपर अल्ला
अथवा रामक नाम छै
केओ रमौने धूनी चट्टा
पाकड़ि तऽर अविराम छै
मन्दिरमे परसादी भेटए मस्जिदमे बतासा
मिथिला देश निवासी छी हम, मैथिली हमर भाषा

मिथिला देश सदासँ रहलै
भेदभावसँ दूर
मुल्ला–पण्डित सभ रहै छथि
परम्परा मशहूर
गीत मैथिली सुनबथि जख्मी साजि मनक अभिलाषा
मिथिला देश निवासी छी हम, मैथिली हमर भाषा

भगता बेङक देश भ्रमण @ अनु. रूपा धीरू आ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on जुलाई 19, 2011
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विद्यापति, प्रेमर्षि र हुसेन @ प्रा.डा. अभि सुवेदी

Posted by Dhirendra Premarshi on जुन 16, 2011
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केही हप्तादेखि कला, साहित्य, भूमि र राजनीतिसँग जोडिएका केही प्रश्नले मेरो काल्पनिकीमा हलचल ल्याएका छन्। कुनै-कुनै प्रसङ्ग बाहिरका छन् भने कुनै देशभित्रका छन्। तर मलाई सिर्जना, स्वतन्त्र चिन्तन र त्यसमाथि जाइलाग्नेहरूका चरित्रहरूले धेरै हल्लाएका छन्। सिर्जना गर्नेलाई आफ्नो परिवेश, आफ्नो माटो, नदी र आकाश अनि मुक्त भएर रचना गर्ने आधारहरू चाहिन्छन् भन्ने मान्यता छन्। यसमा अरू केही चिन्ता पनि जोडिएका छन्। मलाई धेरै ठाउँमा सोधेको एउटा प्रश्न आफैँमा उत्तरजस्तो लाग्छ। प्रश्न छ- हामी अहिले विश्वसाहित्य, विश्वकलाको क्षेत्रमा कहाँ छौँ? यसको मैले बुझेको उत्तर यत्ति छ। हाम्रा सिर्जनाका चिन्ता हाम्रो परिवेशबाट उठेका हुन्छन्, अनि तिनको मूल्य विश्वजनीन हुन्छ। म पहिला मलाई छोएका केही प्रसङ्हरू उठाउँछु।

मैथिली भाषाका चौधौँ/पन्ध्रौँ शताब्दीतिरका विख्यात कवि विद्यापतिको विषयमा पढ्दै जाँदा एउटा प्रसङ्ग भेटेँ। कवि र भूमि अनि नदी र जीवनको सम्बन्ध विषयको यो एउटा शक्तिशाली रूपक हो। त्यस्तै भारतीय चित्रकार मकबुल फिदा हुसेनको गत बिहीबार ९५ वर्षको उमेरमा लन्डनमा निर्वासित अवस्थामा दिवंगत भएको कुरासँग जोडिएको छ। मधुवनीका कवि विद्यापतिको लामो जीवनको अवसानको कथा र हुसेनको कथामा केही अन्तर छन्, तर केही बलिया साम्य छन्। धेरै वृद्ध भइसकेका कवि विद्यापतिलाई गंगानदीमा गएर देह विसर्जन गर्ने इच्छा भयो। उनले छोराछोरी र इष्टमित्रलाई बोलाएर उनलाई गंगानदीमा लगिदिनु भने। पाल्कीमा वृद्ध शरीर राखेर रातभरिमा उनलाई गंगानदी नजिकै पुर्या्इयो। कविले भने, मलाई यहीँ राख। अब गंगामाता मलाई भेट्न यहीँ आउँछिन्। अढाई कोस टाढाबाट नदी कसरी यहाँ आउँछिन र, उहीँ जानुपर्छ, उनीहरूले जोड दिए। कवि मानेनन्। एउटा झिनो शरीर भइसकेको पुत्र मातालाई भेट्न यहाँसम्म आउँछ भने माता उसलाई भेट्न यतिसम्म किन आउँदिनन्? कवि त्यहीँ पर्खे। केही समयपछि नदीको भँगालो कविलाई भेट्न आइपुग्यो। सबै चकित परे। कविले रचे-

बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे । छाड़इत निकट नयन बह नीरे ।।
कर जोड़ि बिनमञो विमलतरङ्गे । पुनि दरसन होअ पुनमति गङ्गे ।।
एक अपराध छमब मोर जानी । परसल माए पाए तुअ पानी ।।
कि करब जप-तप जोग-धेआने । जनम सुफल भेल एकहि सनाने ।।
भनइ विद्यापति समदञो तोँही । अन्त काल जनु बिसरह मोही ।।

मलाई लाग्छ, मैले अलिअलि बुझेजति सबैले बुझिने यो शक्तिशाली श्लोकको अनुवाद चाहिँदैन।
कवि विद्यापतिको नदी र भूमिप्रतिको अनुराग एक रूपक हो। नदी एक बहाब हो, समय र तरङ्ग हो। यिनका कविता र यिनको जीवनको विषयमा खोजी-खोजी पढिरहँदा म द्रवित भएको छु। मैथिली भाषाका यी महान कविको हामी त्यति चर्चा गर्दैनौँ। विद्यापतिको काव्य नेपाली पाठकसामु पुर्यााउनुपर्ने दायित्व कसको हो? नेपाली भाषा र यसका कविहरूलाई मात्र प्रचार गरिहिँड्ने राज्य, राजधानीका हैकमवादी र घमन्डी धनीमानी एलिटहरूले नेपालको दोस्रो महान भाषाका यी कविको विषयमा कति थाहा पाएका छन्? म आफ्नै अनुभवबाट यसको उत्तर खोज्ने क्रममा लागेको छु।

नेपाल उपत्यकाको महान सभ्यताभित्र कवि विद्यापति विद्यमान छन्। पाटनका पुराना जात्रा र प्रस्तुतिमा अहिले पनि उनका श्लोकहरू पाठ गरिन्छन्। यो नेपाल मण्डलका पत्थरशिला, हस्तलिखित ग्रन्थ र छापिएका शास्त्रहरूमा जताततै मैथिली भाषा छ। यस भूखण्डको स्पन्दन छ। यतातिरको सिर्जनात्मक संस्कार र चिन्तनमा मैथिली संस्कृतिको प्रभाव छ। काठमाडौँका पहिलेका नाटक र नाट्य परम्पराको अध्ययनको सिलसिलामा केही मैथिल लेखक र अरू इतिहासकारले लेखेका थोरै भए पनि अर्थपूर्ण अध्ययनबाट मैले थाहा पाएअनुसार यहाँको प्रदर्शनकारी संस्कृतिभित्र मैथिली भाषा र त्यसका रचनाकारहरूको ठूलो प्रभाव छ। प्रसङ्ग उठाउनु मात्र यस लेखको उद्देश्य हो।

मैथिली भाषाले मिथिलामा हिन्दी भाषाबाट खेप्नुपरेको यातनाको कथा लामो छ। जनमत भएको बेला अङ्ग्रेज र पछि भारतको कङ्ग्रेस सरकारले मैथिली भाषीलाई हिन्दीभाषी हुँ भनेर परिचय दिने प्रचार आदेश अनि अरू कथाहरू स्व. रिचर्ड बर्गार्ट भन्ने ब्रिटिस र एक मित्रको गम्भीर अध्ययनमा हामी राम्ररी पढ्न पाउँछौँ। नेपाली भाषाको कारणले र अहिले आएर फेरि राजनीतिमा हिन्दी बोल्न नजाने पनि हिन्दीलाई राजनीतिक आधार मानेर प्रचार गरिहिँड्ने नेताहरूका आँखामा मैथिली भाषा ओझेलमा पर्ने डर सिर्जना भएको छ। अर्कोतिर मधेसीको पहाडी मूलका स्वजनहरूप्रति मैथिल कविको यस्तो भनाइ छ। मैथिली कवि धीरेन्द्र प्रेमर्षि समयलाई सलाम (२०६६) भन्ने सुन्दर मैथिल कलाले सज्जित नेपाली किताबभित्रको बाह्र नम्बर गजलमा सोध्छन्-

लोकतन्त्र आउनुपर्छ भनाइ होइन गराइमा
यतिमात्र के भनेथेँ, आगो बल्यो तराईमा

सँगसँगै काँधमाथि सूर्य बोकी ल्याकै थियौँ
तर पनि दर्छौ किन हामीलाई पराइमा?

फेरि निकैपछि नम्बर चौँतीसको गजलमा कवि व्यङ्ग्यात्मक शैलीमा भन्छन्-

तिमी भन्छौ, चाँदी अनि सुन पाए हुन्थ्यो
मचाहिँ भन्छु, रोटीमाथि नुन पाए हुन्थ्यो

प्रेमर्षिका छैसट्ठीवटा नेपाली गजलहरूमा समेटिएको वैविध्यमा मैथिल र मधेसका सिर्जनात्मक, विद्रोही र सुन्दर स्पन्दनहरू छन्। उनको काव्यको मूल सार नेपालमा मैथिल र अन्य भाषीहरूबीचको सम्बन्ध र सिर्जनाभित्र लुकिबसेका क्षणहरूको पहिचान गर्ने आह्वानमा रहेको देखिन्छ।
प्रसिद्ध जर्ज ए. ग्रिअर्सन र डब्लु.जी. आर्चर भन्ने अङ्ग्रेजी अध्येताहरूले समेत विद्यापतिको काव्यमा धर्मनिरपेक्ष काव्यिकशक्ति देखेका थिए भने आनन्दकुमार स्वामीजस्ता भारतीय विद्वानले भने सन् १९१५ मा अनुवाद गरेर निकालेको विद्यापतिका गीतमा उनलाई धार्मिक कविको रूपमा मूल रूपले चित्रण गरेको कुरा उत्तरऔपनिवेशिक अध्ययन गर्नेहरूलाई एउटा चाखको विषय हुनसक्छ। सबै अध्ययनको सार विद्यापतिको गङ्गा नदी रूपकमा भेटिन्छ भन्ने मलाई लाग्छ।

लक्ष्मण श्रेष्ठको चित्रकला र हुसेनको चित्रकलामा समातिएको मिथकको फरक चरित्रमाथि मैले काठमाडौँ पोस्ट (८ जून) मा लेखेको भोलिपल्टै हुसेनको मृत्यु भएको समाचारले भावुक भएको थिएँ। विद्यापतिको गङ्गा रूपक मेरो मनमा बलियोसँग आयो। हुसेन भारतीय भूमिको जीवन्त स्वरूपलाई आफ्नो कलाको प्राण ठान्थे। अठारौँ/उन्नाइसौँ शताब्दीमा अङ्ग्रेजले भारतीय चित्रकारहरूलाई भारतको प्रकृति र जीवन्त चरित्रभन्दा अलग अनुकृतिमूलक कलाको रचना गर्ने शिक्षा दिएर बानी पारे। हुसेनले त्यसलाई मृत-प्रकृति भन्ने संज्ञा दिए। भारतको जीवन्त र उत्ताल प्रकृतिलाई एउटा सपाट जीवनहीन कलामा उतार्न लगाए ब्रिटिसले, तिनले भने। तर हुसेनलाई हिन्दु धार्मिक अतिवादीले ज्यान मार्ने धम्की दिए। तिनले जीवनभर उपासना गरेको उनको देशको जीवन्त प्रकृति र उत्ताल शक्तिको छेउ कवि विद्यापतिजस्तो फर्किएर जीवन विसर्जन गर्न पाएनन्। तिनले पश्चिमी शैलीलाई प्रयोग गरेर बनाएको भारत भूमिको कलामा उनको भारतको प्रकृति जीवन्त हुन्छ, त्यहाँ मिथक बोल्छन्। त्यो भूमिलाई, त्यो उनले जीवनभर रचना गरेको मिथकलाई अन्तिम बेला उनले कुनै लहरमा बोलाएर जीवन अर्पण गर्न पाएनन्।

मैले यस छलफलमा अहिलेका मैथिल कवि धीरेन्द्र प्रेमर्षिका सरल काव्यले उठाएका प्रसङ्ग र विद्यापति अनि निर्वासित अवस्थामा जीवनयात्रा बिसाएका हुसेनलाई एकैठाउँमा राख्नुको अर्थ बिम्बहरूको सान्निध्य गराएर भूमि, सिर्जना र त्यसको व्याख्यातिर ध्यानाकर्षित गर्नुसम्म रहेको छ। नेपाल भन्ने भूमिमा जन्मेका काव्यधाराहरू, स्वतन्त्र चिन्तनहरू राजनीतिसँग जोडिएका छन्। नेपालमा अहिले सिर्जना र स्वतन्त्रताका धेरै सम्भावना खुलेका छन्। तर एक प्रकारको सेन्सर, विचारमाथि लगाम लाउने अनि हमला गर्ने प्रवृत्तिहरू नेपालमा जन्मिन थालेका छन्। लेखकहरू, पत्रकार र विचारकहरूमाथि हमला हुनु, धम्कीपूर्ण र क्षूद्र भाषामा गालीगलौज गरिनु, तिनको चरित्रहत्या गर्ने कोसिस हुनु सबै खतरनाक किसिमका सेन्सर हुन्। त्यसको निम्ति साहित्यकारै अथवा कलाकारै अथवा मिडिया र स्वतन्त्र राजनीति गर्ने भनिएकै एजेन्टहरू पनि प्रयोग हुनसक्ने अवस्था छ।

यो देशमा युगौँदेखि रचना भएका साहित्यिक परम्परा छन्। हैकमवादी प्रवृत्तिले तिनको उपेक्षा भइरहनु पनि एउटा मौन सेन्सर र हेजिमोनी हो। सबैका आ-आफ्ना सिर्जनाका परम्परा छन्। म र मेरो भाषामा मात्र ती छैनन्। सबै परम्पराभित्रका सिर्जनात्मक रचनाहरूको अनुशीलन गर्नु मेरो निम्ति सबैभन्दा सुन्दर विषय हो भनेर म लागिपरेँ भने स्वतन्त्र, सुखी र मुक्त हुन सक्छु भन्ने हामीलाई चेतना हुनुपर्यो । नेपालमा अहिले देखिएको विचारमाथिको हमलाले दुई अवस्थामा डरलाग्दो रूप लिन सक्छ। पहिलो हो, देशमा संविधानसभा संविधान नबनी भङ्ग हुनु अनि दोस्रो हो, हाम्रा साझा संस्कृति र संस्कार छन् भनेर नमान्नु र आ-आफ्ना कुनामा भेला भएर आत्मरति गर्नु। अहिले हुसेनको लन्डनको मृत्युले भारत चिरिएको छ। नदी र माटो सिर्जना र अस्मितामाथि भयानक बहस भइरहेका छन्। हामीलाई पनि चेतना भया।

प्रकाशित मिति : २०६८ जेष्ठ ३०

गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 28, 2011
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राजनीति खुब मस्त भेल छै
सोनित सभसँ सस्त भेल छै

जन-जनके जी-जान उड़ाबऽ
सेना-पुलिसक गश्त भेल छै

सरकारी बिक्खक खेतीसँ—
लहालोट गिरहस्थ भेल छै

के अछि मुनने मुस्कीक मोन्हि
सभटा आइ खुलस्त भेल छै

कहियाधरि होइ मलहम-पट्टी
हिम्मति सबहक पस्त भेल छै

कोन विजयलए खेल ई खुनियाँ
जइमे सभक सिकस्त भेल छै

ढाही लैत अछि सँढ़हा-पाड़ा
लेरू-बच्छा त्रस्त भेल छै

कुर्सीक मजगूतीलए लाशक
सगरो बन्दोबस्त भेल छै

उगैत भोरकेँ अनदेखल कऽ
झुट्ठे लोक तटस्थ भेल छै

२०६१ साल कातिक ७ गते लिखाएल ई गजल फेर सान्दर्भिक होइत देखि एहिठाम परसि रहल छी।

परिवर्तनका लागि @ युवराज

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 27, 2011
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एस के नेपाल न्यूज सर्भिस, शनिबार, अगस्त, ०१, २००९

देश सङ्घीयताको बहसमा छ। हरेक जातजाति र समुदायले आफ्नो अस्तित्व र अधिकारका लागि केन्द्रिकृत राज्य प्रणालीलाई धावा बोलिरहेको समय हो यो। यस्तो समयमा मैथिली कला र साहित्यमा भइरहेको अत्यधिक काम देखेर खुशी लाग्छ। नाटक, कविता, चित्रकला, सङ्गीतमा प्रशस्त काम भइरहेका छन्। अझै पनि केन्द्रले यसलाई वास्ता नगर्नु विडम्बना हो। जिल्लामा मिनापले जातीय हिंसाविरुद्ध एउटै नाटक सयभन्दा बढी प्रदर्शन गर्यो। गत महिना गुरुकूलमा रमेश रञ्जनले मैथिली कविता वाचन गरे। सुनील मल्लिकले मैथिली गीति एल्बम लेहुआयल आँचर र खोँता सिङ्गार निकाले। तर यी सबै कुराको राजधानीलाई पत्तो छैन।

भर्खरै धीरेन्द्र प्रेमर्षिको सङ्गीतमा नयाँ गीति एलबम बजारमा आयो ‘डेग’। धीरेन्द्र राजधानीको प्रचार र भीडदेखि नलोभ्भिई लहान पुगे र ७ जना युवाहरुको हातबाट आफ्नो एल्बम विमोचन गराए।

हम ने पहाडी आ ने मधेसी, हिन्दू ने मुसलमान छी
हम नेपालक सुच्चा सन्तति मैथिक वीर जवान छी
देश हमर इमान, माटि हमर भगवान

सैलुन वा जुत्ता पलिस गर्न जाँदा बाठो भएर हिन्दीमा गफ गर्न आतुर हुने हामी नेपालीका लागि माथिको गीत अनुवाद गर्नुपर्छ भन्ने मैले ठानिनँ। किनकि यो हाम्रै देशका नागरिकहरूले बोल्ने भाषा हो। एक नेपालीले अर्को नेपालीको भाषा, संस्कृति र स्वभावलाई कति माया गर्छ भन्ने चुनौती पनि हो यो।

उक्त गीतमात्रै होइन, एल्बमभित्रका अन्य ७ वटा गीत पनि यस्तै मर्मस्पर्शी र गेयात्मक छन्। धीरेन्द्र प्रेमर्षिको विविधतापूर्ण सङ्गीतले गीतहरू सुनिरहुँ लाग्छन्।

‘डेग’को अर्थ पाइला हुन्छ। एल्बमका गीत पनि प्रतीकात्मक छन्। सबै गीतहरूले नेपालीबीच एकताको आह्वान गरेका छन्। यस एल्बमको प्रमुख विशेषता हो गीतका शब्दहरू उत्कृष्ट हुनु। सङ्गीतकार प्रेमर्षि आफैँले पनि यस एल्बमलाई ‘युवा जागरण तथा सशक्तिकरणका निम्ति’ भनेका छन्।

मैथिल समाज लोगकथा, लोकभाका र लोकसंस्कृतिले अत्याधिक धनी छ। र, हरेक सिर्जनामा धीरेन्द्रले मैथिली समाजको प्रतिबिम्ब भर्ने प्रयास गरेका हुन्छन्। एल्बमभित्रका दुईवटा गीतका रचनाकार धीरेन्द्र आफैँ, त्यसैगरी साहिल अनवर, श्रीराज, पुनम ठाकुर, रोशन जनकपुरी, मीना ठाकुर र रूपा झाका एक-एकवटा रचना रहेका छन्। एल्बमको पुछारको गीत ‘भाइ रे, एमकी जतरा निम्मन छै’ अत्याधिक आरोह-अवरोह र लय भएको गीत हो। यस गीतमा धीरेन्द्रको स्वर निकै परिपक्व सुनिन्छ।

एल्बममा डा. आभास लाभले दुईवटा गीत गाएका छन्। यिनको स्वर जादूमय लाग्छ। किनकि यी गायनमा शब्दहरूलाई मजाले खेलाउन सक्दारहेछन्। स्वरमा मिठास छ। शिवचन्द्र दास, सन्तोषकुमार झा, हरिशङ्कर चौधरी, अविनाश मिश्र, मुकेश प्रियदर्शी, मुनचुन देव, विश्वनाथ झा, राजकुमार त्यागी आदिको स्वरले एल्बमलाई अझै उत्कृष्ट बनाएको छ।

पहिलो कुरा त यी रचनाहरू उत्कृष्ट साहित्य हुन्। त्यसमा धीरेन्द्रले आधुनिक सङ्गीत भरेका छन्। तेस्रो महत्त्वपूर्ण कुरा सबै गायकहररूको स्वरमा निखार छ। अचम्मलाग्दो कुरा हामीले नेपाली सङ्गीतले कहिल्यै वास्ता नगरेका मैथिली भाषाका गायकहरूको स्वर साधनामय छ। यदि ती स्वरलाई नेपाली भाषाका गीत पनि गाउन लगाए नेपाली आधुनिक सङ्गीतले नयाँ मिठास पाउने थियो।

धीरेन्द्र प्रेमर्षिको यसभन्दा अघि आधा दर्जन एल्बम बजारमा आइसकेका छन्। नेपाली र मैथिली भाषामा बराबर दक्खल भएका यी कवि स्थापित सङ्गीतकार र गायक हुन्। पेसाले सरकारी कर्मचारी प्रेमर्षिले कला, साहित्य र संस्कृतिका क्षेत्रमा धेरै काम गरेका छन्। रेडियो, टेलिभिजन, पत्रपत्रिकाजस्ता सञ्चारमाध्यममा पनि आफ्नो सिर्जना प्रस्तुत गरिरहेका छन्। सिस्नुपानी नेपालमा संलग्न यिनले २०६२/०६३ को आन्दोलनमा गणतन्त्र कविता उराले। त्यसो त हरेक वर्षको सिस्नुपानी द्यौँसीका प्रमुख आकर्षण हुन् प्रेमर्षि। उनले चलाउने कान्तिपुर एफएमको हेलो मिथिलाले मैथिली भाषाको प्रवर्द्धन र लोकप्रियतामा ठूलो भूमिका खेलेको छ।

गोरखापत्र दैनिकको मैथिली विभागको संयोजक पनि यिनै हुन्। यिनकी श्रीमती रूपा झा पनि गायन र रचनामा सक्रिय छिन्। श्रीमान्-श्रीमती मिलेर प्रशस्त सांस्कृतिक अभियान नै चलाएका छन्। प्रेमर्षिको अर्को विशिष्टता भनेको मैथिली-नेपाली अनुवाद हो। महेन्द्र मलङ्गियाको मैथिली नाट्यकृति प्रेमर्षिको अनुवादमा भर्खरै बजारमा आएको छ।

धीरेन्द्र प्रेमर्षि राम्रा सर्जक त हुन् नै, यिनले गरको सांस्कृतिक अभियन्ताको भूमिकाले राजनीतिक रूपमा पनि ठूलो अर्थ लाग्छ। उनलाई साधुवाद।

(मैले असार ३१ गते मेरो जन्मदिनदेखि घिमिरे युवराज नलेखेर युवराज मात्रै लेख्न थालेको हुँ।)

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