Premarshi

धीरेन्द्र प्रेमर्षिक चिन्तन चौपाड़ि

  • देसिल वयना सबजन मिट्ठा : मैथिल कविकोकिल विद्यापति

गीतकार धीरेन्द्र प्रेमर्षिक सुर-ताल @ डा. राजेन्द्र विमल

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 24, 2011
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गीतकार धीरेन्द्र प्रेमर्षि नेपालीय मैथिली गीत-संसारक प्रायः सभसँ मूल्यवान उपलब्धि थिकाह— विविधतामय विषयक दृष्टिएँ, संख्यात्मकताक दृष्टिएँ, उच्च काव्यमूल्यक दृष्टिएँ, विविध शिल्प-प्रयोगक दृष्टिएँ, विविध अलङ्कार, गुण, रस, भाषिक प्रयोगक दृष्टिएँ, शैलीगत विविधताक दृष्टिएँ, सामाजिक सचेतताक दृष्टिएँ आ सभसँ बढ़िकऽ मस्तिष्क आ हृदयक सुन्दर सहयात्राक दृष्टिएँ। हिनक गीतसङ्ग्रह ‘कोन सुर सजाबी?’ क गीतसभमे प्रेमतत्त्व, व्यङ्ग्यतत्त्व, वेदनातत्त्व, नवरसतत्त्व, उद्‌वोधनतत्त्व, आख्यायिका-तत्त्व, सामाजिक-तत्त्व, धार्मिक-तत्त्व, राजनीतिक-तत्त्व, सांस्कृतिक-तत्त्व आदि विविध तत्त्व मिलाकऽ जे कलात्मक रूपाकृति गढ़ल गेल अछि से विलक्षण थिक। हमरा आन गीतकारक किछु गीतक किछु पंक्ति भीतरधरि छूबैत अछि, मुदा धीरेन्द्रक बहुतो गीतक प्रायः सभ पंक्ति मर्मकेँ बेधि जाइत अछि। जीवन-जगतक यथार्थ शक्ति आ सम्भावनाक प्रति अदम्य निष्ठा एवं सजगतासँ पोनगल आन्तरिक आ वाह्य सौन्दर्य जखन सुरमे सजैत अछि तँ जेना चेतनाक लहरिकेँ लयबद्ध कऽ लैत अछि। जीवनक कियारीमे फुलाइछ सत्य आ सौन्दर्यक फूल जे प्रत्येक रूप-रङ्गमे मङ्गलकारी थिक। परिवेशक यथार्थबोध हेतु आवश्यक वैज्ञानिक दृष्टिक विरोधमे ठाढ़ भेल कुण्ठित सौन्दर्यबोधसँ बेसी तकर साहचर्यमे परिमार्जित आ विकसित सौन्दर्य-चेतनाक कारणेँ गीतकारक सहज प्रेमोच्छ्वासो कोनो अदृश्य चन्द्रलोकसँ आएल नहि, हृदय किंवा धरतीसँ उपजल लगैछ।

कविमे सौन्दर्य-चेतनाक इन्द्रधनुषी रङ्ग यत्र-तत्र-सर्वत्र छलकि उठल अछि से सत्य, मुदा सौन्दर्यक रसग्राह्यता मिथिलाक धरती आ संस्कृतिक प्रति सहज संस्कारक रूपमे विकसित मधुर अनुरागसँ अभिप्रेरित अछि। बहुजन-रञ्जनक सङ्ग बहुजन-मङ्गलक भाव हिनक अनेक गीतक संवेदनाकेँ समसामयिक आ सतत गतिशील सत्यक संवाहक बना देने अछि, मुदा तौँ ओ देश-कालक अन्तर्सत्यसँ आबद्ध अछि। स्पष्ट कही तँ हिनक समकालीनता परिवेशजन्य अन्तरङ्ग क्षणक अभिव्यक्ति थिक। हिनक भाषा, भङ्गिमा, भावबोध, छन्द, लयमे एतेक नवीनता आ ताजापन एहि दोआरे बूझि पड़ैछ जे ओ सद्यःजात कमलक फूलसन टटका अछि, जकर जड़ि भने परम्परामे होइक, मुदा प्रस्फुटन नितान्त मौलिक छैक।

धीरेन्द्र प्रेमर्षिक गीतसभकेँ निम्नलिखित कोटिमे वर्गीकृत कएल जा सकैछ— १) श्रम, सङ्घर्ष, आस्थाक गीत २) मानवीय सम्बन्ध आ संवेदनाक गीत ३) सौन्दर्य-चेतना आ प्रीतिक गीत ४) चिन्तनपरक दार्शनिक गीत ५) माटिपानि आ सामाजिक राजनीतिक सचेतताक गीत।

१. श्रम, सङ्घर्ष, आ आस्थाक गीत : जीवनक अरण्यमे काँट छैक तँ फूलो छैक, पतझड़ छैक तँ बसन्तो छैक, ग्रीष्म-प्रदाह छैक तँ छाहरिक शीतलतो छैक। जीवनकेँ स्वीकार करबाक लेल ओकर सम्पूर्ण यथार्थकेँ स्वीकार कऽ उत्साहक सङ्ग जीबऽ पड़तैक। विडम्बनापूर्ण जीवनक ई स्वीकृति आ जिजीविषा गीतकारकेँ काँटक बीच फूल खोजबाक प्रेरणा आ उत्साह दैत छन्हि—

चारि दिनक ई जीवन-धाम
हरखक पल ताहूमे बाम
कलिका खोँटिकऽ फेकैत हम
ताकि रहल छी फूलक गाम

ई धरती, एकर उत्सव आ शोक, स्मिति-अश्रु, जय-पराजय प्राणवन्तताक प्रमाण थिकै, तेँ कोनो कल्पना-कुहरमे भटकैत सत्य-सूर्यक खोज करब बतहपनी छैक। सृष्टिक गर्भसँ जनमल सत्य मात्र गीतकारकेँ स्वीकार छन्हि—

सत्यक जननी सृष्टि तमाम
कर्मक सिञ्चन हम्मर काम…..

प्रेमर्षि श्रमहीन जीवनकेँ जिनगीक भ्रम मानैत छथि आ शोषणपर आधारित जीवन-व्यवस्थाक विरुद्ध छाती तानि ठाढ़ भऽ जाइत छथि। शोषणक विरुद्ध केहन घृणा छन्हि प्रेमर्षिक मोनमे—

गामक गाम उजाड़ि बनाओल
महल-अटारी नइ चाही
देशक खून आ गरीबक आहसँ
भरल बखाड़ी नइ चाही
लाखोक धूर निलामीक जनमल
एक जिमदारी नइ चाही…..”

एहन अवस्थामे ओ कहैत छथि— हमरा अपन गरीबियो बरदान लगैए…..

गरीबक जिनगीक केहन मार्मिक शब्दचित्र प्रस्तुत कएने छथि प्रेमर्षि—

पीठकेँ झँपैत छी तँ माथा उघार
माथकेँ झँपैत छी तँ पीठहि उघार
चूनि-चूनि खढ़पात खोँता बनाबी
चुबिते रहि जाए तैयो जिनगीक चार……

२. मानवीय सम्बन्ध आ संवेदनाक गीत : मनुक्ख अनेक स्तरपर एक-दोसराक रागतन्तुसँ बन्हाएल अछि। नितान्त वैयक्तिक स्तरपर, पारिवारिक स्तरपर, सामाजिक स्तरपर, राष्ट्रिय स्तरपर, अन्तर्राष्ट्रिय स्तरपर, ब्रह्माण्डीय स्तरपर। राग-विरागक ई खेल चिरन्तन थिक, सार्वभौम थिक। जाधरि मनुक्ख जीवित अछि, नेह-छोहक एहि रेशमी बन्धनकेँ तोड़ि फेकब ओकरा हेतु दुःसाध्य थिकै। एहि रागात्मकताकेँ प्रेमर्षि जीवनक स्पन्दन, प्राणज्योति, अपरिहार्य अङ्ग-रङ्ग मानैत छथि—

बीस बरखा टेरलिङिया कुरता
तैपर साटल चेफरी छै
शीतलहरीमे ओक्कर ओढ़ना
पोतीक फेकल केथरी छै
सोना गढ़िकऽ इएह फल पौलक
अपने बनि गेल ताम-सन
वाह बुढ़बा तैयो बाजैए
हम्मर बेटा राम-सन….

अद्वितीय !! ई सम्बन्ध-बन्ध अपराजेय आ अमर रहए, भगवान !!

३. सौन्दर्य-चेतना आ प्रीतिक गीत : कोनो राजनीतिक वादक झण्डातर बैसि गीतकेँ विज्ञापन वा प्रचारक माध्यम बनबैत अथवा अनुभवशून्य विषयपर शब्दक कलाबाजी देखबैत जीवानुभव वा जीवनसत्यक दिससँ शुतुरमुर्गी शैलीमे आँखि मुननिहार गीतकार नहि थिकाह प्रेमर्षि। तेँ ओजस्वी भावनाक हथौड़ासँ शब्दकेँ लोहारजकाँ पीटि-पीटि सङ्घर्षक हेतु फरसा आ गड़ाँस बनबैत प्रेमर्षि जखन छेनीसँ पदावलीकेँ तरासैत सोनारजकाँ रचि-रचिकऽ पे्रयसीक हेतु कोमल कण्ठहार बनबैत छथि तँ हमरा कृष्णक कुरुक्षेत्रक योद्धारूप आ वृन्दावनक रासलीला रचबैत प्रेमीरूप एक्कहिबेर मोन पड़ि जाइत अछि।
शृङ्गारक दुनू भेद— संयोग आ विप्रलम्भक मोहक चित्रण हिनक गीतमे भेटैत अछि—

प्रेमक घटसँ जते निकाली
जलक हुअए ने अन्त
हमर अहाँकेर प्रेमक चिड़िया
भऽ गेल बेस उड़न्त…….

४. चिन्तनपरक किंवा दार्शनिक मुद्राक गीत : चिन्तन जखन भावनाक तलपर आबि गाबऽ लगैछ तँ उच्च कोटिक गीतक जन्म होइत छैक। प्रेमर्षिक किछु गीतमे चिन्तनक जे चिनगी दहकैत अछि से जिनगीक चरम सत्यधरि लऽ जाइत अछि—

जीवन थिक मेला दू दिनमा
ई इर्ष्या-द्वेष किए प्राणी
आखिरमे देह गलिए जएतह
बस रहि जएतह अमृत वाणी…..
वन-वन बौआइत अछि
कस्तूरीक टोहमे मृग जहिना
सदिखन औनाइत अछि
माया आ मोहमे मन तहिना…..

५. माटि-पानि आ सामाजिक-राजनीतिक सचेतताक गीत : धीरेन्द्र प्रेमर्षिक गीतमे जयदेवक कृत्रिम कलात्मकता नहि, विद्यापति गीतक सहज कलामय तन्मयता अछि। तेँ ई गीतसभ मिथिलाक सुगन्धसँ महमह करैत अछि। मिथिलाकेर व्यथा दहेज, नवका साल पुरने हाल, जनतन्त्रक बहाली, जय हो पेट धरमवीर, हे देखियौ हमर समाजमे, ओ बमभोला, सत्ताक माछ, देशी मुर्गा बिलाइती बोली, जागरण गीत एहि कोटिक गीत थिक। एहि गीतसभमे अत्यन्त तीक्ष्ण व्यङ्ग्य अछि—

बम भोला
छोडू भङगोला
जँ पियब अछि अति आवश्यक
पीबू कोकाकोला…..

मुर्गा देलक बाङ
दुलरिया दारू ला……

पहिने डबरा-खत्ता घुमी
भेटए बस गरचुन्नी
बाँटैत-चुटैत पबैत छलियै
एक्कहि-दूटा कुन्नी
एहिबेर पोखरिक जीरा भेटल
सटि गेल ठोरमे
आब तँ मोन परकि गेल हम्मर
माछक झोरमे………..

दूर्गापूजा डी.पी. बनि गेल
भरदुतिया राखीतर दबि गेल
जुड़शीतल शीतलहरीक मारल
हैप्पी न्यू इयर बस फबि गेल
बम फटाक फुलझड़ीक बीचमे
डूबि गेल हुक्का लोली
देशी मुर्गा बिलायती बोली…..

एहि सभ गीतक उचित मूल्याङ्कन मैथिल संस्कृतिक गवाक्षसँ निरखिकऽ करब बेसी उचित होएत। कारण हुनक गीत-संसार सोरसँ पोरधरि मैथिल संस्कृतिक रङ्गमे सराबोर अछि। एत्तऽ धरि जे उपमोसभ खाँटी मैथिल भूमि, जीवन, समाज वा संस्कृतिसँ लेल गेल अछि—

भेल प्रेमक रौदी एहि जगमे
तेँ धधकए सभतरि दावानल
जुड़शीतलक जल-थपकीसन
बरिसाउ प्रिये कने प्रेमक जल…….

सुच्चा मैथिल गीत थिक— अछिञ्जल-सन पवित्र ! एकटा पाँती देखल जाए—

भौजीकेँ बस कोबरे भाबनि
मुदा दियरसभ आबि सताबनि
भैया बहाने काल भगाबथि
बारहमासा गाबि सुनाबथि………

गीतकार धीरेन्द्र प्रेमर्षिक मादे टिप्पणी दैत नेपाल राजकीय प्रज्ञा-प्रतिष्ठानक उपकुलपति, नेपाली समीक्षाशास्त्रक युगपुरुष, प्रकाण्ड विद्वान प्रा.डा. वासुदेव त्रिपाठी उचिते लिखलैन्हि अछि— “करीब सैँतीसे वर्ष (तत्कालीन) क लहलहाइत उमेरमे अनेक विधा आ क्षेत्रमे रहल हुनक साधना आ तकर विस्तृत आयामक अवलोकन कएलापर हमरालोकनिक मोनमे सहजहिँ महान नेपाली साहित्य-स्रष्टा मोतीराम भट्टक स्मरण भऽ अबैछ।” मैथिलीक एहि मोतीरामपर मिथिला-मैथिलीक इतिहास सर्वदा गर्व करत से हमर अटल धारणा थिक।

आजुक मिथिला महात्म्य @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 24, 2011
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मानैत छी जे नहि अछि एक्खन, दुनियाकेर भूगोलमे
तैयो छी हम बचाकऽ रखनहि जकरा माइक बोलमे
सोहर, लगनी, जटाजटिन कि झिझिया, साँझ, परातीमे
एकहकटा मिथिला जीबैए, एकहक मैथिल छातीमे

लोहछल नस-नसमे एखनहु तिरहुतिया सोनित बरकैए
केहनहु बज्जर मैथिलकेर धड़कनमे मिथिलहि धड़कैए
जिनगीक तुलसी चौरामे नित बरैत दीपक बातीमे
एकहकटा मिथिला जीबैए, एकहक मैथिल छातीमे

बगय-बानि बदलल रहितो माथा संस्कारक पाग जतऽ
विद्यापतिकेर गीतक सङ्ग पसरल मधुमय अनुराग जतऽ
होरीक रङ्ग, धुरखेलक सङ्ग सुकरातीक उक्कापातीमे
एकहकटा मिथिला जीबैए, एकहक मैथिल छातीमे

सुरुजक अगुआनीलए जइठाँ महिँस-पीठपर पसर खुलै
सैर बराबरि गबैत जतऽ पौरखिया चाँचर प्रेम झुलै
करसी जरबैत घूरमे आऽ कनकन्नी पचबैत गाँतीमे
एकहकटा मिथिला जीबैए, एकहक मैथिल छातीमे

मन-मनमे दहकैत चिनगीकेँ हवा लगाकऽ प्रखर करी
अन्हड़िमे बहकैत जिनगी ठेकनाएल पथपर मुखर करी
कतऽ-कतऽ बौआएब कते, जोड़ी मन-तार गतातीमे
एकहकटा मिथिला जीबैए, एकहक मैथिल छातीमे

एकटा पुरान गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 20, 2011
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झुट्ठो जे नहि डाइन नचौलक ओ भगता ओ धामी की!
एको गाम जँ डाहि ने सकलहुँ तँ ओढने रमनामी की!

अक्षत-चानन, धूप-दीपसँ जतऽ यज्ञ सम्पूर्ण हुअए-
ततऽ जँ क्यो हड्डी रगडैए ओ कामी ओ कलामी की!

बाप-माएपर्यन्त परोसैछ स्नेह जखन बटखारासँ-
नकली सभक दुलार लगैए से काकी से मामी की!

सोनित सेहो शराब बनै छै शासनके सनकी भट्ठी-
दियौ घटाघटि जे भेटए से फुसियाही की दामी की!

पोखरिक रखबारी पएबालए कण्ठी खालि बान्हि लिअ
फेर गटागटि घोँटने चलियौ से पोठिया से बामी की!

बान्हि लङ्गोटा कूदि गेल प्रेमर्षि सेहो अखाडामे
ढाहि सकल ने जुल्म-इमारत ओ जुआरि ओ सुनामी की

प्रेमक सीमा @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 19, 2011
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चहचहाइत चिड़इ-चुनमुन्नी
हमरा बड्ड नीक लगैत अछि
तेँ हम बाजोसँ प्रेम करैत छी
मुदा पड़बा हमरा सभसँ प्रिय अछि
ताहीसँ अपना आकाशमे हम
बाजक विचरणपर प्रतिबन्ध लगबैत छी
हँ, मैथिली हमर पड़बा अछि।

गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 12, 2011
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स्वाभिमानकेँ ढाहिकऽ माङल ताज नामञ्जूर अछि
जीह बेचिकऽ खरिदल मीठ आवाज नामञ्जूर अछि

सुनैत मधुरगर लगितोमे जँ भाव-भूमि गोङिआइत अछि
ओहन गीतकेँ सजौनहार सभ साज नामञ्जूर अछि

चिक्कन-चुटपुट रूप बनाकऽ नाचि सकै छी अहाँ मुदा
पछबा सिहकीमे बहकैत अन्दाज नामञ्जूर अछि

घुटुर-घुटुर घुटरैत सदा हम पोसी प्रेमक पडबा, तेँ
कोनो रूपमे कतौ उडए से बाज नामञ्जूर अछि

चूल्हि ने पजरल कुटियालए जँ नीर ने निरखै नैनमे
कतबो उन्नत कहबैकाक समाज नामञ्जूर अछि

प्रेमक पोथी पढि-पढिकऽ प्रेमर्षि केओ कहा लिअए
मुदा जे घिरना परसैत हो से काज नामञ्जूर अछि

रोटी अप्पन रहितोमे छै नोन-तेल तँ अनके हाथ
जीह-मोन नइ जुडबए तेहन सुराज नामञ्जूर अछि

एकटा टटका गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 11, 2011
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माथामे घुरछिआइत जब्बर सवाल अछि-
माइएकेर सौत लेल बेटा बेहाल अछि!

जन्म देनिहारिकेँ नोरमे नहाइत छोडि
चमचिकनीक चाम चटैत छौँडा नेहाल अछि

टोपीकेर लोभ देखा माथा बेचबाबए जे
जुनि पुछू मीत केहन शातिर दलाल अछि

प्यासलकेर हाथसँ छीनि लैछ लोटा आ
पटबैछ पानि जतऽ अरिया-उछाल अछि

बूझि गेलै सभकेओ बात जे भीतरिया छै
कतऽ छै जडि आ कथीक ई कमाल अछि!

माए देखि तिरपित होइ अपना सन्तानकेँ
एक-दू पैकार मुदा बाँकी सभ लाल अछि

(लेखन तिथिः २०६८/०१/१९-२७)

[जानकी (मैथिली) दिवसक पूर्वसन्ध्यामे ई गजल परसि रहल छी। कचकूह अवस्थामे परसल गेल ई गजल संरचनागत रूपेँ किछु कमजोर बुझा रहल अछि। जँ एहिमे सुधारक लेल कोनो रचनात्मक सूझाव भेटए तँ आभारी होएब।]

चलू चली कने काल प्रेमर्षिक साहित्यलोकमे

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 9, 2011
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कहियो काल premarshi@wordpress.com पर आबि किछु साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिन्तन आ मन्थन करी।

दहेज-गीत @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 9, 2011
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दहेज-दहेज-दहेज, मिथिलाकेर व्यथा दहेज
माए-बापसँ रोटी छिनलक, धीयासँ छिनलक सेज

जिनगी उजाड भेल, जीयब पहाड भेल
हरेक छोट माछ पैघ माछक आहार भेल
रिश्ता व्यापार भेल, मिथिला बजार भेल
हँसबालए व्यग्र नैन, दुनियाँ अन्हार भेल
ककरो आँखिक चमक पाइकेर, बेधए ककरो करेज
दहेज-दहेज-दहेज, मिथिलाकेर व्यथा दहेज

जनकजी मरै छथि, दशरथ तरै छथि
राम छथि मौन तेँ जानकी जरै छथि
बात सभ करै छथि, बेरपर डरै छथि
सभ छथि वैद्य, दुःख क्यो नइ हरै छथि
मिथिलाकेर उद्धारलए दहेज करू परहे्ज
दहेज-दहेज-दहेज, मिथिलाकेर व्यथा दहेज

(भाइ प्रवीण चौधरीक अभियानमे ऐक्यबद्धता जनबैत अपन २० वर्ष पुरान गीत)

‘समयलाई सलाम’ भित्रका स्रष्टा धीरेन्द्र प्रेमर्षिको गजलकारिता @ नन्दलाल आचार्य

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 5, 2011
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विज्ञान र प्रविधिले चमत्कारिक कार्य गर्दै आए पनि कलमी पौरखले संसार हल्लाउन सकेको छ । शेक्सपीयर, लक्ष्मीप्रसाद, शेली, पारिजातहरूले संसार हल्लाइरहेकै छन् । स्रष्टाले सिर्जेका कुरा हर पिँढींलाई हुन्छ । विश्व मानव सभ्यताका निम्ति सृष्टिकर्ता अमृ्ल्य नीधि हो । स्रष्टाले नयाँ सृष्टि गर्छ । त्यसैले पनि ऊ समाजको अति नै महत्वपृ्र्ण व्यक्ति हो । आजका स्रष्टाका कलमले समाजका अमिल्दा पक्षप्रति खबरदारी गर्नुपर्छ । समाजमा व्याप्त थिचोमिचो, शोषण–दमनलाई हटाउन कलमी युद्धमा होमिनु जरुरी हुन्छ । समाजमा नौलो चेतना छर्न सकेमा मात्र असली अर्थमा स्रष्टा कहलिन सकिन्छ । सञ्चार, साहित्य, कला, संस्कृतिको विकास भन्ने नाम सुन्नासाथ कुम्भकर्ण निन्द्रामा रहने संस्कार नेपालका हरेक सरकारमा छ । सञ्चार, साहित्य, कला, संस्कृतिमा लाग्नेहरूको जीवनवृत्तिको लागि सरकारी क्षेत्रबाट नै विशेष, विशेष काम पश्चिमी राष्ट्रमा हुन्छ भन्ने कुरा साहित्यकार कृष्ण धरावासी बताउनुहुन्थ्यो । जीवनवृत्तिको त कुरै छाडौँ, हामीकहाँ चाहिँ मान्छेले कलम र वाणीको पेशामा रहेर जीवन बचाउन हम्मे पर्यो, परिरहेछ । मिथिलाञ्चल पनि कला–संस्कृति, रहनसहन, पर्व मेलामा कोहीभन्दा कम छैन, सांस्कृतिक सम्पदाले धनी छ, समृद्धशाली छ । नेपालीहरूको सांस्कृतिक सम्पत्तिको ठूलो हिस्सा मिथिलाञ्चलले ओगटेको छ । मैथिल नारीहरू सर्जक बनेर सिर्जना गर्ने मिथिला चित्रकला त नेपालीहरूको निजी सम्पदा बनेको छ । विश्व माझ नेपालीलाई चिनाउने एउटा अनुपम कडी बनेको छ । जानकी मन्दिर, शखडेश्वरी भगवती मन्दिर, राजदेवी मन्दिर, कंकालनी मन्दिरजस्ता मन्दिरहरू विश्व हिन्दू धर्मावलम्बीकै पवित्र तीर्थस्थल हुन् । मधेशका रत्नपुत्रपुत्रीहरूले नेपालको मान र सान उच्च बनाएको जिउँदो इतिहास हाम्रा सामु छँदैछ । गणतन्त्र नेपालका प्रथम राष्ट्रपति डा. रामवरण यादव हुन् या उपराष्ट्रपति परमानन्द झा हुन् वा अन्तर्राष्ट्रिय खेलकुद (क्रिकेट) का खेलाडी महबुब आलम नै किन नहुन् सबैले नेपालीहरूको शिर उच्च पार्न आफ्नो ठाउँबाट यथेष्ठ योगदान पुर्याउँदै आएका छन् । जनयुद्धको रणमैदानबाट जन्मेका कवि राजेश विद्रही हुन् या शहादत प्राप्त रामवृक्ष यादव, शाकेतचन्द्र मिश्र, दिलिप चौधरी सबैले गर्विलो इतिहास बनाइदिएका छन् । त्यस्तै साहित्य, सङ्गीत, सञ्चार, अभिनय, उद्घोषणजस्ता विविध फाँटमा एकनासे योगदान पुर्याएर मिथिलाञ्चलको छाती ढक्क फुलाइदिने र नेपालीहरूको शिर उच्च तुल्याइदिने एक बहुमुखी प्रतिभा धनी व्यक्तित्व हुन्– धीरेन्द्र प्रेमर्षि । मैथिली र नेपाली दुबै भाषामा उत्तिकै दक्षता भएका प्रेमर्षिले बालबालिकाहरूका लागि कक्षा १ देखि कक्षा १० सम्मको मैथिली भाषाको पाठ्यपुस्तक लेखन एवं सम्पादन गरेका छन् भने प्रौढ साहित्यमा ‘कोन सुर सजाबी ?’ र ‘मैथिली कविता सङ्ग्रह’ जस्ता मैथिली भाषामा कृतिहरू प्रकाशित गरिसकेका छन् । नेपाली भाषामा लेखिएको प्रेमर्षिको ‘समयलाई सलाम’ शीर्षकको गजल सङ्ग्रह मेरो हातमा परेको छ । यस सानो लेखमा उनै बहुचर्चित र लोकप्रिय सर्जक प्रेमर्षिको गजल सङग्रह ‘समयलाई सलाम’ भित्रका आवाजरूलाई बुलन्द पार्ने प्रयास गरिएको छ ।

‘समयलाई सलाम’ भित्र समेटिएका ६६ वटा मर्मस्पर्शीमध्ये गजलको प्रारम्भमै क्रान्तिकारी आवाज धन्काइएको छ ।

भोक लाग्दा सबैले नै खाना पाउनुपर्छ,
अनि मात्र सुशासनको गाना गाउनुपर्छ ।।१।।

बसिखाने र गरिखाने बीचको वर्गीय द्वन्द्वको स्पष्ट झलक उनका गजलले दिन्छन् । वास्तवमा सुशासनको रट लगाउनु अघि सबैले खाना खान पाउँदा, त्यही खानाको जोह गर्न काम गर्न पाउँदा नै समाजले अग्रगति लिन सक्छ । वेरोजगारहरूको काल पर्खने स्थान मात्र मुलुकलाई पार्ने हो भने त्यो समयलाई कुल्चेर हिँडेको ठहरिन्छ । त्यसै गरी राष्ट्रिय एकता नै आजको आवश्यकता भएको महसुस गर्दै गजलकार प्रमर्षि सबै नेपालीहरू मिली होस्टेमा हैंसे थप्नुपर्ने आवश्यकता देख्दछन् ।

काँधमाथि देश उठाई सगरमाथा चढ्नलाई,
होस्टेमाथि हैंसे गर्दै सबले पाइला चाल्नुपर्यो ।।२।।

राम्रो र हाम्रो नयाँ नेपाल निर्माणका निम्ति गजलकारले विभेद रहित समाजिक संरचनाको परिकल्पना गरेका छन् । जातिय, क्षेत्रीय, लैङ्गीक समस्याहरू समाधान नै वर्तमानको एक आवाज हो । सोही आवाजलाई सार्वजनिक गर्न गजलकार भन्दछन्–

काँधमा बोक्या सगरमाथा धेरै नै गह्रुङ्गो भयो,
भत्काएर यसलाई अब चौतर्फी सम्याऊँ साथी ।।३।।

युद्ध विभीषिकाको सम्झना गर्ने काम समेत गजलमा भएको छ । शान्तिलाई बचाएर राख्ने काम सबैको हो । शान्ति कलिलो र कफलो हुन्छ । त्यसलाई हुर्काउनु, बचाउनु गाह्रो हुन्छ तर नाश गर्न वा भङ्ग गर्न सजिलो हुन्छ । हो, त्यही शान्तिको घाँटी निमोठ्ने काम प्रशासनीक संयन्त्रद्वारा नै भएको र नेपाली जनताले कहर काटेर जिउनु परेको दुरदशालाई मार्मिकतरवले प्रस्तुत गर्ने काम गजलमा भएको छ ।

उड्दाउड्दै परेवा त्यो आकाशमै ढलेको छ,
चारो छर्ने हातबाटै गाली हजुर चलेको छ ।।४।।

शान्तिसँग द्यौती पनि कहाँ गई गुहार्ने हो,
परेवाको खोपभित्रै बाज पनि अँटेपछि ।।५।।

हरेक कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न गर्न चुक्नुहुन्छ, राम्रो काम गर्नलाई कुनै साइत जुराउनु पर्दैन । शान्ति विनाशकहरू स्वाभिमानी शिर गिराउन खोज्छन्, त्यस वेला सचेत भएर आफ्नो स्वअस्तित्वलाई बचाउनुपर्छ–

अब चाहिँ नसुतून् है उज्यालाका यी प्रहरी,
झनै गाढा रात आउला फेरि पनि चुकेपछि ।।६।।

लोकप्रिय लयात्मक विद्या गजल भावयुक्त शब्दहरूको चिटिक्क परेको फूलबारी हो । जहाँ काफिया–रदिरूपि सुन्दर थुँगाहरू विनारोकटोक आनन्दसाथ फक्रन्छन् । जसले दिने सुवास र रोमाञ्चकताको हिसावकिताव गरेर साध्य हुँदैन । लयात्मकता, सरलता, मिसराहरू बीचको उपयुक्त समायोजन, काफिया र रदिफ बीचको सान्दर्भिक तालमेल, गजलद्वारा प्रकट भावको गहिराइ जस्ता आधारभूत पक्षहरू आन्तरिक संरचनाभित्र पर्नुपर्छ र गजलको वाह्यसंरचना भित्र भने काफिया, रदिफ, मतला, मकता, तखल्लुस, मिसरा, मिसरा–ए–उला, मिसरा–ए–सानी, सेर र बहर जस्ता आधारभूत तत्वहरू पर्दछन् । यी गजलका आन्तरिक र वाह्य दुवै संरचनाका सबै खाले गुणहरू गजलकार धीरेन्द्र प्रेमर्षिमा पाइँदैनन् । सबै खाले गुण विद्यमान नभए पनि गजल नहुने चाहिँ होइन । विशेष गरेर गजलमा सरलता, लयात्मकता, मिसराहरू बीचको सम्बन्ध, काफिया र रदिफको तालमेलजस्ता पक्षहरू सशक्त रूपले आउनुपर्छ । यी सम्पूर्ण गुणहरू ‘समयलाई सलाम’ भित्र पाउन सकिन्छ ।

आमाको (मैथिलीको) काखमा बसेर गरेका अनुभूति र चिन्तनलाई सानिमा (नेपाली) को काखमा बिसाएको छु भनेर नेपाली भाषामा गजल सङ्ग्रह ‘समयलाई सलाम’ नेपाली साहित्य भण्डारमा समर्पण गर्ने गजलकार प्रेमर्षिले मैथिली संस्कृतिका आवाजहरूलाई भने धेरै ठाउँमा समेटेका छैनन् । एस.सी. सुमनद्वारा मिथिला चित्रकलामा आधारित सुन्दर चित्रले सङ्ग्रहको आवरण रंगाइदिएका भने छन् जुन बडो मनमोहक प्रतित हुन्छ । पहाडिया अहंकारवादले मधेसलगायत अन्य क्षेत्रका निम्छरावर्गलाई सताएको र अहिले लोलोपोतो गर्दै राष्ट्रिय अभियानमा सरिक हुन आह्वान गरेको सन्दर्भलाई टपक्क टिपेर गजलकारले अहंकारको मुखैमा झापड हान्न भने बिर्सेका छैनन् ।

तिम्रो मनको खोपीमा नि मेरो गुच्छा पिल्नुपर्छ,
अनि पो त भन्न पाइयो साथी–साथी मिल्नुपर्छ ।

डाँडाभरि लालीगुँरास फक्रिएर मात्र हुन्न,
मैदानको पर्तीमाझ चम्पा पनि खिल्नुपर्छ ।।१३।।

“गणतन्त्र नेपाल” बनेपनि राजनैतिक फोहोरी खेल दोहरिएकोमा गजलकार रुष्ट छन् । जनतालाई तड्पाउने हक नेतानेतृलाई नभएको भन्ने आवाज निकाल्न समेत उनी पछि परेका छैनन् ।

हिजो जस्तो फेरि जालझेल चल्न थाल्यो,
खुट्टा तान्ने पुरानै त्यो खेल चल्न थाल्यो ।

अचम्मको यात्रा रै’छ संविधान–सभा,
इन्जिनको पत्तो छैन, रेल चल्न थाल्यो ।।२५।।

‘म मैथिलीमा रुन्छु र नेपालीमा आँसु पुस्छु, म मैथिलीमा सोच्छु र नेपालीमा बोल्छु’ भनेर मैथिली र नेपाली भाषालाई भाषिक अभिव्यक्तिको उत्तिक्कै सशक्त माध्यम ठान्ने र प्रेम वर्साउने गजलकार प्रेमर्षि ‘प्रेम’ का ‘ऋषि’ बन्न सकेका छैनन्– ‘समयलाई सलाम’ गजल सङ्ग्रहमा । एकाध ठाउँमा भने शिष्ट श्रृङ्गारिक रसयुक्त अभिव्यक्तिलाई स्थान दिन भने चुकेका छैनन् ।

खोल्सा–खोल्सी खहरेको मात्र कुरा छैन यहाँ,
तिम्रा लागि असारको कोसी पनि तारिदिउँला ।

अजम्बरी नाता हो यो तिम्रो माया भनी,
दुनियाँले नबुझेमा अन्तै डेरा सारिदिउँला ।।४२।।

अब भने सङ्गीत, साहित्य र सञ्चारका त्रिवेणी जाँगरिला व्यक्तित्व गजलकार धीरेन्द्र प्रेमर्षिको ‘समयलाई सलाम’ भित्रबाट उनका गजलकारीताका प्रवृत्तिहरूलाई पर्गेल्ने जमर्को गरिएको छ । गजलकार प्रेमर्षि आफ्ना गजलमार्फत–

१. क्रान्तिकारी आवाजलाई घनीभूत पार्छन् । २. राष्ट्रिय एकताको शंखघोष गर्छन् । ३. नयाँ नेपाल निर्माणको तीव्र चाह समेट्छन् । ४. युद्ध विभीषिकाको मार्मिक ढङ्गले चित्रण गर्छन् । ५. समाजका वेमेल प्रवृतिप्रति कठोर व्यङ्ग्य प्रहार गर्दै स्वतन्त्रता र स्वाधीनताको पक्षमा मत सार्वजनिक गर्छन् । ६. अन्धविश्वासी, रुढिवादी एवं जढसूत्रवादीहरूको झाँको झार्छन् । ७. गजलमा शब्दको थुप्रो हैन अर्थ वा भाव हुनुपर्ने विचार प्रकट गर्छन् । ८. आठदेखि उन्नाइस अक्षरमा आधारित गजल राखेर आक्षरिक लयमा गजललाई बाँध्ने प्रयत्न गर्छन् । ९. प्रचलित बिम्ब एवं प्रतीकहरूको सशक्त प्रयोग गर्दै रूपक एवं उपमा अलङ्कारले युक्त पार्छन् । १०. शिष्ट श्रृङ्गारिक रसयुक्त गजल लेख्न माहिर देखिन्छन् । ११. गजलमार्फत प्रतिपक्षमा रहेर सत्ताधारीलाई खबरदारी गर्छन् । यी माथि वर्णित कार्यव्यापार सम्पन्न गर्ने प्रेमर्षिका गजलयीय प्रवृत्तिलाई बुँदागत रूपमा निम्नानुसार उल्लेख गर्न सकिन्छ ।

क. आमूल परिवर्तनको पक्षमा चेतनाको अभिव्यक्ति, ख. परिवर्तनकामीहरूको योगदानको सम्मान, ग. यथास्थितिवादी र पश्चगमनवादीहरूको क्रियाकलापको विरोध, घ. उत्पीडित वर्गप्रति सहानुभूति र उत्पीडनकारी वर्गप्रति भत्र्सना, ङ. सामन्तवाद–साम्राज्यवाद–पूँजीवादको विपक्षमा खडा, च. राज्य आतङ्कप्रति कठोर शब्दवाण प्रहार, छ. राष्ट्रप्रेमी स्वर गुञ्जायमान, ज. समाज रूपान्तरणको अभिलाषी, झ. पुरुषतन्त्रको कडा विरोध, ञ. क्रान्तिको फल ‘शान्ति’को स्वाद चाख्ने चाहना, ट. श्रमजीवि वर्गको विजय हुने आशावादी दृष्टिकोण, ठ. आपसी भाइचाराको सम्बन्धलाई सुदृढिकरण गरी राष्ट्रोत्थानमा सरिक हुन आह्वान । यिनै प्रवृत्तिहरू स्रष्टा प्रेमर्षिका गजलभित्र ठम्याउँन सकिन्छ ।

जे गर्न पनि प्रतिभा चाहिन्छ । प्रतिभाको अर्को नाम सीप, कला, दक्षता हुन सक्छ । रहरले प्रतिभा जन्मदैन, प्रस्फुटन हुँदैन । निरन्तर अभ्यास, कठिन साधनाले नै मानिसमा रहेको प्रतिभा पक्रने गर्दछ । हरेक मानिसमा बराबरी ढङ्गले प्रतिभा अन्तर्निहित हुन्छ तर त्यो कोपिलाकै अवस्थामा हुनछ । कसैले सजिलै, छोटै समयमा त्यसलाई फक्राउँछन् त कसैलाई कठिन साधना गर्नुपर्छ र फक्रन समय लाग्छ । हामी जीवनपर्यन्त ज्ञान लिई रहन्छौं, प्रतिभा फक्राइरहन्छौं । गजल लेखनको बाढी आएको छ तर कोही सैद्धान्तिक जानकारी लिएर गजल लेख्छन् त कोही देखासिकी गर्दै लेखिरहेछन् । गजल सैद्धान्तिक र अनुशासित विधा हो । यो सङ्गीतसँग सम्बन्धित हुन्छ । गलजमा प्रेमप्रधान विषयका अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं धार्मिक विषयवस्तुहरू रहन सक्छन् । यसमा शब्दगत सरलता, हार्दिकता, समर्पण, त्यागजस्ता भावनाहरूको गहिरो छाप हुन्छ । गजलमा संवेदनशीलता, भावुकता र हृदयविदारकता जस्ता गुणहरू प्रशस्त भेटिन्छन् । क्रान्तिकारी आवाज बुलन्द र्ने गजलहरूमा भने सामाजिक बेथितिप्रति आक्रोशपूर्ण आवाज पनि धन्कन सक्छ । गजल सैद्धान्तिक बन्धनले बाँधिएको तर भावको गहिराइ भएको र त्यसमा शाब्दिक चमत्कार, सरलता, कोमलता र हार्दिकपन भने नितान्त जरुरी हुन आउाछ । लयात्मकता, सरलता, सरसता, मिसराहरूको उचित रखाइ, काफिया र रदिफ बीचको तालमेल, भावको गहिराई सौन्दर्य र दृष्टिकोण जस्ता गजलका आधारभूत कुराहरू आन्तरिक संरचनाभित्र पर्ने कुराहरू हुन् भने काफिया, रदिफ, मतला, मकता, तखल्लुस आदिको उत्कृष्ट प्रयोग वाह्य संरचना हो । यो गजलको शरीर हो । १. काफिया, २. रदिफ, ३. मतला, ४. मकता, ५. तखल्लुस, ६. मिसरा, ७. मिसरा–ए–उला, ८. सेर, ९. बहर । यी सबै तत्वहरूको उचित निर्वाह गजलकार प्रेमर्षिबाट सबै गजलहरुमा भएको भने पाइन्न तर कुनै गजलमा एक थरीको गुण पाइन्छ भने अर्कामा अर्कै थरीको विशेषता पाइन्छ । जे होस् गजलको व्याकरण म त्यत्ति जान्दिनँ भने पनि गजलकार गजलका नियमहरूबाट अनविज्ञ भने छैनन् । यसको प्रमाण नै ‘समयलाई सलाम’ भित्रका गजल हुन् ।

निश्चय नै साहित्य र कलाले गलत चिन्तन र प्रवृत्तिको भण्डाफोर गरी नयाँ परिवर्तनमा ठूलो भूमिका खेल्नुपर्छ किनकि सामन्ती सत्ताले दवाइराखेका क्रान्तिकारी, समाजवादी, यथार्थवादी साहित्य र कलाबाट जनता विमुख भएमा मुलुकले सही दिशा पक्रन सक्दैन । प्रगतिवादी चिन्तन र धरातलबाट नै नेपाली समाजले न्याय, समानता र स्वतन्त्रता प्राप्त गर्न सक्छ । आजका स्रष्टाहरूबाट श्रमजीवि, सर्वहारावादी एवं न्यायप्रेमी नेपाली जनताले चेतनाको उज्यालो घाम पाउने अपेक्षा राख्नु अन्यथा होइन । प्रगतिवादी चिन्तन र धरातलमा रहेर कविताकाव्य, गजलगीती विधामा कलम चलाएका र रचालाई रहेका कृष्ण सेन ‘इच्छुक’, पूर्णविराम, जसराज किराँती, घनश्याम ढकाल, दिल सहानी, मित्रलाल पंज्ञानी, ईश्वरचन्द्र ज्ञवाली, मातृका पोखरेल, रामप्रसाद ज्ञवाली, जगदीशचन्द्र भण्डारी, हरिगोविन्द लुइँटेल, पुन्य कार्की, देवी नेपाल, अनिल पौडेल, रमेश भट्टराई, सुधा त्रिपाठी, अमर गिरी, रामविक्रम थापा, हीरामणि दुःखी, सुकुम शर्मा, प्रदीप बालाचन, गंगा श्रेष्ठ, अशोक सुवेदी, राजकुमार कुँवर, मणि थापा, सत्य पहाडी, सरला रेग्मी, लक्ष्मी माली, खेम थपलिया, डीपी ढकाल, नमुना, एम बटुवा, महेश्वर शर्मा, चेतकान्त चापागाईँ, रविकिरण निर्जीव, सिर्जना ढकाल, बन्दना ढकाल, नुमराज बराल, नारायण परिश्रमी, पोषराज पौडेल, जीवन शर्मा, राजेन्द्र पौडेल, सीमा शर्मा, हेमराज पहारी, सरिता तिवारी, नारायण मरासिनी, कृणराज अधिकारी, केदार शर्मा ढकाल, पूर्णवहादुर अधिकारी, माधवप्रसाद सुवेदी, निभा शाह, वेणु आचार्य, रामप्रसाद जैसी, यज्ञवहादुर डाँगी, देवेन्द्र पौडेल, आरपी तिमिल्सिना, अनिल श्रेष्ठ, भानु भण्डारी, यज्ञराज प्रसाई, दिनेश दुलाल, शोभा थापा, कमला रोक्का, चुनु गुरुङ, गणेश भण्डारी, मोदनाथ मरहठ्ठा, वान्तवा वसन्त, जनक महतारा, धनेश्वर पोखरेल, अनिल शर्मा, सीता शर्मा, कुसल वोगटी, गणेश शाही, पीपी आचार्य, युवराज काफ्ले, दीपक चिन्तक, नन्दलाल आचार्य, केएल पीडित, दीपक विश्वकर्मा, अर्जुन ज्ञवाली, ओमकारनाथ ज्ञवाली, कविराज पौडेल, यानेन्द्र जी.सी., झकवहादुर मल्ल, खगेन्द्र राना, पञ्चकुमारी परियार, लोकेन्द्र विष्टजस्ता दर्जनौँ कविकवयित्रीहरूमा दरिलो स्थान बनाएका प्रगतिवादी कवि एवं गजलकार हुन्– धीरेन्द्र प्रेमर्षि। लेखनको प्रारम्भिककालीनमा जेजस्तो धारमा कलम चलाउँदै आए पनि यस समयमा र यस गजल संग्रहमा भने प्रेमर्षिले शोषणरहित समाजको निर्माणका निम्ति आफ्नो कलमको मसी सुकाउँदै आएको पाइन्छ । उनका गजलहरू शक्तिशाली बन्दुकका गोलीजस्ता चोटिला र प्रभावयुक्त छन्। समाज रूपान्तरणको चाहनाले ओतप्रोत भएको पाइन्छ। समाजका अमिल्दा कुराहरूलाई पचाउन नसक्ने र विद्रोही आवाज ओकल्ने गजलकारका रूपमा प्रेमर्षि ‘समयलाई सलाम’ गजल संग्रहमा खरो साथ उभिएका छन् ।

हालः लिट्ल फ्लावर मा.वि., राजविराज–९, सप्तरी
तपेश्वरी–१, गल्फडिया, उदयपुर,

गजल @ धीरेन्द्र प्रेमर्षि

Posted by Dhirendra Premarshi on मे 3, 2011
Posted in: Uncategorized. 4 टिप्पणीहरु

जोरजुलुमसँ जे ने झुकए से भाले लगए पिअरगर यौ
इन्द्रधनुषी एहि दुनियामे लाले लगए पिअरगर यौ

ठोरे जँ सीयल रहतै तँ गुदुर–बुदुर की हेतै कपार!
एहन मुर्दा शान्तिसँ तँ बबाले लगए पिअरगर यौ

कुच्ची–कलमक रूप सुरेबगर रहलै, रहतै सबदिनमा
जखन अन्हरिया पसरल होइक, मशाले लगए पिअरगर यौ

खालि शब्दक जाल बुनल नहि चाही आब जवाब कोनो
नगर–डगरमे गुञ्जैत सबल सबाले लगए पिअरगर यौ

जुड़शीतलकेर भोरहरियामे धह–धह जरए कपार जखन
जलथपकी नहि, तखन जाँघपर ताले लगए पिअरगर यौ

माथा बन्हबैत कफन, उड़ाबए लाल गुलाल अकाशे जँ
हमरा तँ ओहि समय–सुन्दरीक गाले लगए पिअरगर यौ

साल–सालपर अबैत रहैए, सगरो दुनिया नवका साल
नवयुगक मुहथरि खोलैत नव साले लगए पिअरगर यौ ।

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